महापुरुषों के पद

श्री रमेश बाबा जी महाराज द्वारा विगत षष्टि वर्षों से सतत गह्वर वन में त्रैकालिक संकीर्तन अनवरत गति से ब्रजवासियों तथा विश्व के अनगिनत प्राणियों में भक्ति का संचार कर रहा है । श्री बाबा महाराज ने महापुरुषों के पदों का सरल भाषा में निरूपण, संकीर्तन में अपने गायन द्वारा इस तरह किया है जैसे उन महापुरुषों की अंतर्गति स्वयं बाबा के सामने प्रकट हो गयी हो । महापुरुषों के इन पदों में छुपे हुये भाव, ज्ञान, रहस्य एवं सिद्धांतो का प्रकटीकरण श्री बाबा महाराज के गाये पदों में प्राप्त होता है ।

राधा रानी विनय प्रार्थना

बाबाश्री द्वारा रचित श्री राधा रानी ‘विनय प्रार्थना’ पद शब्दावली यहाँ उद्धृत है । इस पद को आत्मसात कर पदज्ञान किसी तरह प्राप्त हो भी जाए परन्तु यह नीरस शब्दज्ञान विज्ञान का स्वरुप तब तक नहीं हो सकता जब तक इस पद की रस प्राप्ति महापुरुषों की वाणी द्वारा न हो ।

महापुरुषों के पद श्रुतियों, पुराणों, उपनिषद् आदि के सूत्रों से महत्व में कम नहीं हैं एवं वस्तुतः भक्ति के रहस्य तथा सिद्धान्त इन पदों में पूर्णतया निहित हैं परन्तु उनकी कृपा द्वारा ही सर्वग्राह्य हो सकते हैं । लेश पठनमात्र से इन पदों से रस प्राप्ति प्रायः असंभव है ।

भौतिकतावाद में व्यवसायिक गायकों द्वारा गाये हुए महापुरुषों के पद सुर एवं संगीत में उच्च कोटि के हो सकते हैं परन्तु उनका मनोरथ सांसारिक संगीत द्वारा धनोपार्जन करना होता है अतः यह संगीत ह्रदयग्रंथि भेदन में असंभव है । यही कारण है कि कुछ समयोपरांत भक्ति के ये तथाकथित सांसारिक संगीत एवं गीत फीके एवं रसहीन लगने लगते हैं । प्रारंभिक अवस्था में जीव को बाबाश्री के गाये हुए पदों को सुनने में रूचि पापों की अधिकतावश न हो सके परन्तु महापुरुषों द्वारा महापुरुषों के गाये हुए पद ह्रदयग्रंथि भेदन में सक्षम होते हैं एवं शनैः-शनैः जीव के पापों को काटते हैं । जीव का सांसारिक संगीत से मनविक्षेप तथा इन पदों में रूचि हो जाना ही प्रभु की कृपा का लक्षण है । पद गायन अथवा पदों को सुनने से ह्रदय कंठ में आना (उत्कंठा) भावोत्पत्ति के उदय का संकेत है ।

बाबाश्री के गाये हुए पद किसी व्यवसायिक रिकॉर्डिंग स्टूडियो में न तो रिकॉर्ड किये गये तथा न ही उसके लिये टेक अथवा रिटेक लिये गये एतदर्थ नीर-क्षीर विवेकी अध्येतागण त्रुटियों के लिये क्षमा करें ।

विनय सुनहु श्री राधा रानी ।
भव समुद्र को घोर अंधेरो, गहरो जाको पानी ॥
बह्‍यो जात हूँ तीक्ष्ण धार में, टेरत आरत बानी ॥
और सहाय यहाँ नहिं मेरो, यह मेरी मति ठानी ॥
कर गहि मोहि उबारो श्यामा, कृपा दान कर दानी ॥

 

 

साम्प्रदायिकता का विष

आज के वैष्णव समाज में साम्प्रदायिकता के विष ने इन महापुरुषों की वाणी को गौण कर दिया है । अनन्यता के धोखे में जब कोई यह कह कर कि हम “मीरा या कबीर” के पदों के गायन की अनुमति अपने सम्प्रदाय में नहीं देते हैं – एक महान अपराध के भागीदार बनते हैं ।

 

 

व्यास जी को ध्यान में युगल सरकार के लीला दर्शन सतत् होते थे परन्तु जब यह विचार मन में आया कि “वृन्दावन रस कबीर दास जी नहीं जान पायें” – मात्र इस से ही सूक्ष्म भक्तापराध के कारण युगल सरकार की छवि तुरंत अन्तर्धान हो गई ।

श्री हित हरिवंश जी के आदेशानुसार इस अपराध की क्षमाप्राप्ति की याचना हेतु व्यास जी ने कबीर दास जी की स्तुति में इस पद का गान किया –

कलि में सांचो भक्त कबीर ।
जबते हरि चरणन रति उपजि, तब ते बुनयो न चीर ।
दियो लेत न जांचै कबहूँ, ऐसो मन को धीर ।
जोगी, जती, तपी, सन्यासी, मिटी ना मन की पीड़ ।
पाँच तत्त्व ते जन्म न पायो, काल न ग्रसो शरीर ।
व्यास भक्त को खेत जुलाहों, हरि करुणामय नीर ।

व्यास जी ने देखा कि कबीर दास जी यमुना जी से प्रकट हुए और उनके पीछे पीछे प्रभु आ रहे हैं और ठाकुर जी ने कबीर के यश में गाया –

मन ऐसा निरमल भया जैसे गंगा नीर ।
पीछे-पीछे हरि फिरैं कहत कबीर-कबीर ॥

ठाकुर जी भक्त का भजन करते हैं । कबीर दास जी ने प्रभु को प्रतिउत्तर दिया –

कबिरा-कबिरा क्यूं कहें, जा जमुना के तीर ।
एक गोपी के प्रेम में बह गये कोटि कबीर ॥

इस अद्भुत लीला को देखकर व्यास जी का मन तृप्त हुआ एवं इसके उपरान्त ही युगल छवि फिर से व्यास जी के ध्यान में प्रकट हुई ।

प्रायः संस्कृतभाषाभिमान में ज्ञानीजन महापुरुषों के पद जो संस्कृत में नहीं हैं – का अपमान या हेयदृष्टि कर महत् अपराध कर बैठते हैं । तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ की रचना संस्कृत में प्रारम्भ की परन्तु हनुमान जी प्रतिदिन उस हस्त लिखित प्रति को चुरा लेते थे एवं हनुमान जी की आज्ञानुसार ही तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना लोक भाषा में की ।

त्रिलोचन भक्त जी की कथा


श्री रमेश बाबा जी महाराज ने भक्त त्रिलोचन जी की कथा ०९ दिसम्बर २००८ एकादशी को श्री मान मंदिर में अध्ययन रत छात्र एवं छात्राओं को सुनायी थी । यह कथा सुनने के लिये यहाँ क्लिक करें ।

यह बिनती रघुबीर गुसाईं

हे रघुकुल के नाथ श्री रामचन्द्र जी ! आपसे यही प्रार्थना है कि यह जीव आपको छोड़कर दूसरे संसारी लोगों की आशा, विश्वास और भरोसा करता है; जीव की इस मूर्खता (जड़तापन) को दूर कर दें । हे राम ! मैं सद्‍गति, सद्‍‍बुद्धि, सांसारिक धन, ऋद्धि सिद्धि, बहुत ज्यादा प्रशंसा आदि कुछ नहीं चाहता हूँ । बस, मेरा तो आपके चरण-कमलों में दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक नित्य नवीन कारण रहित विशुद्ध प्रेम (अहैतुकी प्रेम) बढ़ता रहे । बुरे (नीच) कर्म जबरदस्ती मुझे जिस जिस योनि में ले जाएँ, उस उस योनि में हे नाथ ! कमठ अंड की तरह (जैसे कछुआ अपने अण्डों का कई मील दूर से ही निरन्तर चिन्तन द्वारा पालन पोषण करता है वैसे ही) एक क्षण के लिए भी आप अपना छोह (स्नेह, दया, प्रेम) नहीं छोड़ना । तुलसीदास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! इस संसार में जहाँ तक इस शरीर का प्रेम, विश्वास, सम्बन्ध है वो सब सिमिटकर केवल आपसे हो जाय ।

यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥
या जग में जहँ लगि या तनु की प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब ‘तुलसीदास’ प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥

 

 

हम न मरैं मरिहैं संसारा

कबीरदास जी कहते हैं कि मैं नहीं मरूँगा बल्कि यह संसार ही मरेगा, मुझे तो जीवनाधार भगवान् मिल गये हैं । मेरे मन में यह विश्वास है कि अब मैं नहीं मरूँगा । जो लोग राम को नहीं जानते उनसे प्रेम नहीं करते, वे ही मृत्यु को प्राप्त होंगे । शाक्त पंथ के अनुयायी भोगों की कामना से शक्ति की आराधना करते हैं, परिणाम में विषयासक्त हो जाते हैं । ऐसे भोगी शाक्त ही मृत्यु का ग्रास बनेंगे जबकि वैष्णव सन्त अमर हो जायेंगे क्योंकि वे जी भर कर राम नाम रूपी रसायन का पान करते हैं । यदि श्री हरि की मृत्यु होती है तब मेरी भी मृत्यु होगी और श्री हरि की मृत्यु नहीं होती है तो मेरी मृत्यु क्यों होगी? कबीरदासजी पुनः कहते हैं कि मैंने अपने मन को प्रभु के सच्चिदानन्दस्वरूप में तन्मय कर दिया है, अतः मैं परमानन्द के सागर को प्राप्त करके अमर हो गया हूँ ।

हम न मरैं मरिहैं संसारा हम को मिला जियावन हारा ॥
अब न मरौं मरनै मन माना, तेई मरैं जिन राम न जाना ।
साकत मरैं संत जन जीवैं, भरि-भरि राम रसायन पीवैं ।
हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं, हरि न मरैं हम काहे कूं मरिहैं ।
कहै ‘कबीर’ मन मनहिं मिलावा, अमर भये सुख-सागर पावा । ॥

 

 

 

तू मत बरजै माई री

मीरा जी अपनी माँ से कहती हैं – “हे माँ ! तुम मुझे साधु दर्शन के लिए जाने से मत रोको ।” माँ कहती है – “अरे बेटी ! मेरी बात सुन, तू क्यों गर्व में फूली फिरती है । इस रात्रिकाल में संसार के सभी लोग आनन्द से सो रहे हैं, ऐसे में तू क्यों रात्रि में जागती है (बाहर घूमती है) । ”मीरा जी उत्तर देती हैं – माँ, यह दुनिया पागल है जिसे भगवान् प्रिय नहीं लगते । जिसके हृदय में श्री हरि बस गये हैं (श्रीहरि का प्रेम उत्पन्न हो गया है) उसे नींद कैसे आ सकती है । इन संसारी लोगों का रास्ता तो चौमासे (वर्षाकाल के) गंदे तालाब की तरह है, उसका जल नहीं पीना चाहिए अर्थात् इन विषयी मनुष्यों के द्वारा अनुसरण किये गये मार्ग का अनुमोदन मत करो । श्री हरि के कथा – कीर्तन रूपी अमृतमय नाले से प्रवाहित रस का आस्वादन करो । अनन्त रूप राशि वाले श्यामसुन्दर के मुख कमल का दर्शन करके ही जीवन धारण करना चाहिए । मीरा जी कहती हैं – हे नाथ ! विरह व्यथा से व्याकुल मुझ विरहणी को कृपा करके अपना बना लीजिये ।

तू मत बरजै माई री मैं तो साधा दरसण को जाती ।
माई कहै सुण धींमड़ी काहे गुण फूली ।
लोग सोबैं सुख नींदड़ी क्यों रैणज भूली ।
गैली दुनियां बावड़ी जाको राम न भावै ।
ज्यां रे हिरदय हरि बसै त्यां कूं नींद न आवै ।
चौमासे की बावड़ी त्यां का नीर न पीजै ।
हरि नाले अमरित झरै त्यां की आस करीजै ।
रूप सुरंगा राम जी मुख निरखत जीजै ।
‘मीरा’ व्याकुल विरहिणी अपनी कर लीजै ।

 

 

बरजी मैं काहू की

कृष्ण प्रेम के मार्ग पर चलने से मुझे कोई कितना ही क्यों न रोके, मैं नहीं रुकूँगी । हे सखी ! तुम सावधान होकर सुन लो, मैं तुमसे अपने हृदय की बात कहती हूँ । सन्त समागम करके मैं अनन्त आनन्द सिन्धु श्री हरि का सुख प्राप्त करूँगी और विषयी जगत से दूर रहूँगी । ऐसा करने में चाहे मेरा तन नष्ट हो, चाहे धन नष्ट हो और भले ही कोई मेरा सिर काट दे, मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हूँ । मेरा मन तो गिरधर लाल के स्मरण में तन्मय हो गया है । कोई कितनी भी मेरी निन्दा करे, कटु वचन कहे , मैं सब सहन करूँगी (प्रति उत्तर नहीं दूँगी) मीरा जी कहती हैं कि मेरे प्रभु श्री हरि अविनाशी हैं, उनकी प्राप्ति के लिए मैं अपने सद्गुरुदेव की शरणागति ग्रहण करूँगी ।

बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ ।
सुनो री सखी तुम चेतन होइ कै, मन की बात कहूँ ॥
साधु-संगति कर हरि सुख लीजै, जग सूँ दूर रहूँ ।
तन-धन मेरो सबहि जावो, भलो मेरो सीस लहूँ ॥
मन मेरो लागो सुमिरन सेती, सबका मैं बोल सहूँ ।
‘मीरा’ के प्रभु हरि अविनाशी, सतगुरु सरण गहूँ ॥

 

 

चालां वाही देस प्रीतम पावां

जाओ उसी देश को जहाँ प्रियतम की प्राप्ति होगी, ऐसे उस ब्रज देश को चलो । जब मैं महारानी थी तब राजसी साड़ी पहनती थी लेकिन अब जोगिन रूप में मैंने भगवा वस्त्र पहन लिया है । राजमहल में तो मेरी माँग मोतियों से भरी जाती थी लेकिन अब तो मेरे बालों की जटायें बन गयी हैं । मीरा जी कहती हैं – हे मेरे प्रभु गिरधर नागर ! हे ब्रज नरेश ! अब मेरी विनती को दया करके सुन लीजिए ।

चालां वाही देस प्रीतम पावां चालां वाही देस ।
कहा कसूँभी सारी रंगावां, कहो तो भगवां भेस ॥
कहा तो मोतियन मांग भरावां, कहो छिटकावां केस ।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर, सुणज्यो बिड़द नरेस ॥

 

 

दरस बिन दूखण लागे नैन

साँवरे के दर्शन बिना मेरे नेत्र अत्यधिक दुखी हैं । हे स्वामी जब से तुम्हारा वियोग हुआ, तब से आज तक मैं कभी शान्ति नहीं पा सकी । कोयल, पपीहा आदि पक्षियों के मीठे शब्द सुनते ही मेरा हृदय काँप उठता है और बैन आदि के कठोर शब्द मुझे मीठे लगते हैं । गोविन्द के विरह में तड़पती रहती हूँ, इसलिये रात को सो नहीं पाती, करवट लेते-लेते मेरा सारा सुख चला गया । हे सखी ! अब इस विरह-व्यथा को मैं किससे कहूँ? मुझे चैन नहीं मिलता, निरन्तर श्रीहरि के आने की बाट देखती रहती हूँ । रात मेरे लिए छः महीने के बराबर हो गयी है । मीरा जी कहती हैं – हे स्वामी ! तुम दुःख मिटाने वाले और आनन्द दाता हो, मुझे कब तुम्हारे दर्शन होंगे? कब मुझे आकर मिलोगे?

दरस बिन दूखण लागे नैन ।
जब से तुम बिछड़े प्रभु मोरे, कबहुँ न पायो चैन ॥
सबद सुणत मेरी छतियां काँपै, मीठे लागे बैन ।
विरह कथा कासूं कहूँ सजनी, बह गयी करवत ऐन ॥
कल न परत मोहि हरि मग जोवत, भई छमासी रैन ।
‘मीरा’ के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेंटन सुख दैन ॥

 

 

हे री मैं तो दरद दिवानी

हे सखी ! मैं तो अपने गिरिधारी के विरह की दीवानी हूँ, मेरी इस वियोग पीड़ा को कोई नहीं जानता है । जो कभी घायल हुआ है, वही दूसरे घायल के कष्ट को समझ सकता है । जिस पतिव्रता ने जौहर व्रत किया है, वही दूसरी पतिव्रता स्त्री के जौहर व्रत में अग्नि में जलने के कष्ट को समझ सकती है । सूली की शैया मेरे शयन के लिए बनायी गयी है, अब मैं किस प्रकार सो सकती हूँ, दूसरी तरफ पिया श्यामसुन्दर की सेज आकाश में है (भगवान् का धाम प्राकृत सृष्टि के परे है) अब उनकी प्राप्ति भला कैसे सम्भव है? मैं तो प्रभु के विरह के कष्ट में वन वन में भटक रही हूँ, अब तक मेरी पीड़ा दूर करने वाला कोई वैद्य नहीं मिला । मीरा जी कहती हैं कि मेरी पीड़ा तो तभी दूर होगी जब साँवरे कन्हैया ही वैद्य बनकर (अपना दर्शन देकर) मेरी विरह व्यथा को दूर करेंगे ।

हे री मैं तो दरद दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय ।
घायल की गति घायल जाणै जो कोइ घायल होय ।
जौहरि की गति जौहरि जानै की जिन जौहर होय ॥
सूली ऊपर सेज हमारी सोवण किस विध होय ।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस विध मिलणा होय ॥
दरद की मारी वन-वन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय ।
‘मीरा’ की प्रभु पीर मिटेगी, जद वैद सांवलिया होय ॥

 

 

अब वे विपदा हू न रहीं

सूरदास जी अपने पिछले जीवन की घटनाओं को याद करके कहते हैं कि अब मेरे जीवन से वे विपत्तियाँ दूर हो गयी हैं । वे दिन कितने अच्छे थे जब मैं मन से प्रभु का स्मण करता था तभी वे मुझे मिल जाया करते थे । वे दीनबन्धु मुझ दीन दास के हित के लिए, मेरी सुरक्षा के लिए हर समय मेरे साथ ही लगे डोलते थे । जैसे आँख पर कोई खतरा आते ही पलकें बन्द होकर नेत्र पुतली की रक्षा करती हैं वैसे ही वो करुणामय हर समय संकट से मेरी रक्षा करते थे । चाहे घनघोर जंगल हो या रणभूमि में युद्ध हो रहा हो, अन्धा होने के कारण जब कभी भी मैं किसी खतरे से घिर जाता तो प्रभु वहीं उपस्थित होकर समस्त आपदाओं से मेरी रक्षा करते थे । कृपा सिन्धु प्रभु की करुणा-कथा की चर्चा कहाँ तक करूँ? वह तो अवर्णनीय है । सूरदास जी कहते हैं कि ऐसी सुख संपत्ति किस काम की जिसमें यदुनाथ श्रीकृष्ण की स्मृति एवं सानिध्य नहीं है ।

अब वे विपदा हू न रहीं ।
मनसा करि सुमिरत है जब-जब, मिलते तब तबही ॥
अपने दीन दास के हित लगि, फिरते संग-संग हीं ।
लेते राखि पलक गोलक ज्यौं, संतत तिन सबहीं ॥
रन अरु बन, बिग्रह, डर आगैं, आवत जहीं-तहीं ।
राखि लियौ तुमहीं जग-जीवन, त्रासनि तैं सबहीं ॥
कृपा-सिंधु की कथा एकरस, क्यौं करि जाति कहीं ।
कीजे कहा ‘सूर’ सुख-संपति, जहँ जदुनाथ नहीं ॥

 

 

इत-उत देखत जनम गयौ

हे मनुष्य ! तेरा सारा जीवन इधर उधर के विषयों को देखने में ही बीत गया । संसार में चारों ओर फैली हुई झूठी माया की आसक्ति में पड़ने के कारण तू भीतरी ज्ञान रूपी नेत्रों से तो अन्धा हुआ ही, बाहरी नेत्रों की शक्ति भी रूपासक्ति के कारण नष्ट हो गयी । तेरे जन्म के समय तेरी माँ को दारुण प्रसव पीड़ा सहन करनी पड़ी, उस समय प्राण जाने के समान अत्यन्त असह्य दुःख माता को और तुझे दोनों को ही भोगना पड़ा । (गर्भवास के समय तूने भगवान् से बाह्य जगत में आने पर भजनमय जीवन बिताने की प्रतिज्ञा की थी) गर्भ से बाहर आने पर तूने उन त्रिलोकीनाथ प्रभु को भुला दिया, गर्भवास की प्रतिज्ञा के अनुसार क्यों न सदा उनका भजन करता रहा? अपने जीवन में तूने कभी भी संत सभा में श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण नहीं किया, मिथ्या विषयों की आसक्ति में फँसकर संसार में यूँ ही कष्ट पाता रहा । सूरदास जी कहते हैं कि अनादिकाल से संसार के सारे जीव भवसागर में डूबे हुए हैं, कोई इससे पार नहीं हुआ, केवल भगवान् के भक्त ही हर युग में माया के बंधन से स्वयं मुक्त होते हैं और दूसरे प्राणियों का भी उद्धार करते हैं ।

इत-उत देखत जनम गयौ ।
या झूठी माया कैं कारन, दुहुं दृग अंध भयौ ॥
जनम-कष्ट तैं मातु दुखित भइ, अति दुख प्रान सह्यौ ।
वै त्रिभुवनपति बिसरि गए तोहि, सुमिरत क्यौं न रह्यौ ॥
श्रीभागवत सुन्यौ नहिं कबहूं, बीचहिं भटकि मर्‌यौ ।
‘सूरदास’ कहै, सब जग बूड़यौ, जुग-जुग भक्त तर्‌यौ ॥