भागवत धर्म में सर्वाधिकार

लगभग २००० वर्षों की पराधीनता के बाद राजनैतिक रूप से १५ अगस्त, १९४७ को स्वतन्त्र हो जाने के बाद भी सांस्कृतिक रूप से अपनों की ही पराधीनता से मुक्त होने की तो कोई सम्भावना भी दिखाई नहीं दे रही है ।
आज इस देश के संकीर्ण विचारकों के द्वारा जो देश व संस्कृति का संकुचन हुआ और अनवरत हो रहा है, वह तो विधर्मी आक्रान्ताओं के द्वारा लाखों वर्षों तक यहाँ लूट-पाट, तोड़-फोड़, कत्लेआम किये जाने पर भी नहीं हो सकता था ।
विशेषतः आज धर्म के नगाड़े बजाने वाले ही भगवद्वाणी, भगवद्‌रूपा आचार्यों की वाणी को सर्वथा भूल गये हैं । भूल गये कि भगवान् श्रीरामके वन-वनान्तर-भ्रमण का कारण केवट, शबरी एवं जटायु पर कृपा करना ही था । इस वन भ्रमण का उद्देश्य असुरों का वध नहीं था क्योंकि यह तो मात्र उनकी संकल्प शक्ति से भी हो सकता था । पुनः कलिकाल में श्री रामानन्दाचार्य जी के रूप में महान विद्वानों की भूमि “काशी” में उद्घोष किया –

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता अपि नित्यरङ्गिणः ।अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापि कालो नहि शुद्धता च ॥
(वैष्णव मताब्ज भास्कर)

संसार में सबको भगवद्‌शरणागति का अधिकार है, चाहे वह समर्थ हो अथवा असमर्थ । क्योंकि भगवद्‌शरणागति में न श्रेष्ठ कुल की अपेक्षा है न अत्यधिक बल की ही, न उत्तम काल की आवश्यकता है, न किसी शुद्धि की ही । प्राणीमात्र शुचि-अशुचि सभी अवस्था में सभी काल में भगवद्‌शरणागति ग्रहण कर सकता है ।

श्री सूरदास जी ने भी कहा –

हरि, हरि, हरि, सुमिरौ सब कोइ । नारि-पुरुष हरि गनत न दोइ ॥
(सूर विनय पत्रिका-१४७)

सनातन धर्म के इस सूर्य स्वरूप सिद्धान्त पर ग्रहण लगाने वाले राहु-केतु स्वरूप आज के संकीर्ण विचारक सर्वथा त्याज्य हैं ।
भूल गये कि जगद्गुरू श्री स्वामी रामानन्द जी ने रैदास (जो कि चमार थे) को भी शिष्य बनाया था जो कलिकाल की गोपी मीरा के गुरू हुए ।

कर्मकाण्ड प्रधान दक्षिण भारत की भूमि में प्रकट हुए शेषावतार श्री रामानुजाचार्य जी कावेरी स्नान के लिए जाते समय एक विप्र के कंधे का सहारा लेते एवं लौटते समय धनुर्दास के कंधे पर हाथ रखकर आते, इससे अन्य ब्राह्मण शिष्यों को बड़ा रोष होता । स्नान को जाते हुए तो ब्राह्मण का स्पर्श और लौटते हुए शूद्र का स्पर्श! राम, राम, राम! ये तो आचरण भ्रष्ट हो गये हैं । बाद में श्री रामानुजाचार्य जी ने उन द्वेषियों को श्री धर्नुधरदास जी के भक्ति, त्याग एवं वैराग्यमय उदात्त व्यक्तित्व से अवगत कराया ।

खेद है कि आज अपने ही धर्मग्रन्थों की वाणी व भावना को यथार्थ रूप से न समझने वाले मनमुखी ज्ञानाभिमानी अज्ञानी लोग संकीर्णता का ध्वज हाथ में लिये अपने ही धर्म को खण्ड-खण्ड करने को खड़े हैं।

भारतीय आर्य संस्कृति में अनेकानेक स्त्रियाँ जैसे देवहूति, सुनीति, सती, मदालसा, सुबुद्धिनी, ब्रज की गोपी, रतिवन्ती, अरुन्धती, अनसूया, लोपामुद्रा, सावित्री, गार्गी, शाण्डिली, गणेशदेई, झालीरानी, शुभा, शोभा, कुन्ती, द्रोपदी, दमयन्ती, सुभद्रा, प्रभुता, उमा भटियानी, गोराबाई, कलाबाई, जीवाबाई, दमाबाई, केशीबाई, बाँदररानी, गोपालीबाई, मीराबाई, कात्यायनी, मुक्ताबाई, जनाबाई, सखूबाई, सहजोबाई, करमैतीबाई, रत्नावती, कुँअररानी, कान्हूपात्रा, चिन्तामणि, पिंगला, हम्मीर, सूर्य परमाल, सरदारबाई, लालबाई, वीरमती, विद्युल्लता, कृष्णा, चम्पा, पद्मा, संघामित्रा, अहिल्याबाई आदि के रूप में आदर्श माता, आदर्श भगिनी, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्री, आदर्श रानी, आदर्श वीरांगना, आदर्श राजनीति निपुणा, आदर्श कार्यकुशला, आदर्श ब्रह्मवादिनी, आदर्श वक्त्री की भूमिका निभाती रही हैं । आज यदि ये न होतीं तो भारतीय आर्य संस्कृति में आदर्श स्त्रियों का स्थान शून्य ही रह जाता ।

आज कोई स्त्री धर्म प्रचारिका बन जाती है तो इसका खण्डन करने भारत के ही संकीर्ण धर्म प्रचारक खड़े हो जाते हैं ।आर्यमेदिनी के युगप्रवर्तक धर्मप्रचारक तो थे स्वामी विवेकानन्द, नारी शक्ति के प्रति जिनके उदात्त विचार आज के प्रत्येक धर्म प्रचारक को पढ़ने चाहिए ।

स्वामी जी का ‘women of india’ नामक ग्रन्थ एवं नारी शक्ति सम्बन्धी आपके अन्य सुन्दर विचारों का संग्रह ‘our women’ पुस्तक रूप में प्रकाशित है ।

आज के युग में स्त्रियों को किस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता है, एक शिष्य के इस प्रकार पूछे जाने पर स्वामी जी ने कहा – छात्राओं को जीवन में सीता, सावित्री, दमयन्ती, लीलावती और मीराबाई का चरित्र सुना-पढ़ाकर अपने जीवन को इसी प्रकार समुज्ज्वल करने का उपदेश दें, इसके साथ ही शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य एवं सुरक्षा की शिक्षा भी आवश्यक है ।

मेरी इच्छा है कि कुछ बालक ब्रह्मचारी एवं बालिकाओं को ब्रह्मचारिणी बनाकर उनके द्वारा देश-देश, गाँव-गाँव में जाकर अध्यात्म का प्रसार कराया जाये । ब्रह्मचारिणियाँ स्त्रियों में अध्यात्म विद्या का प्रसार करें ।वर्तमान युग में तो स्त्रियों को यंत्र ही बना दिया गया है । राम! राम! राम! क्या ऐसे ही भारत का भविष्य उज्ज्वल होगा?

शिष्य – किन्तु गुरुदेव! भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास में स्त्रियों के लिए कोई मठ बनाने की बात प्राप्त नहीं होती है, बौद्ध काल में हुआ भी तो उसके परिणाम में व्यभिचार बढ़ने लगा था, देशभर में घोर वामाचार सर्वत्र फैल गया था ।

स्वामी जी – मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि एक ही चित्-सत्ता सर्वभूतों में विद्यमान है । इस सिद्धान्त के प्रतिपादक वेद ही जिस संस्कृति का मूलाधार हैं, उस देश में स्त्री व पुरुष में इतनी भिन्नता क्यों समझी जाती है? स्त्री निन्दको! तुमने स्त्रियों की उन्नति के लिए आज तक क्या किया? नियम-नीति में आबद्ध करके स्त्रियों को मात्र जनसंख्या की वृद्धि का यंत्र बना डाला । जगदम्बा की साक्षात् मूर्ति है भारत की नारी ।

नारी निंदा मत करो, नारी नर की खान।
नारी से नर ऊपजे, ध्रुव प्रह्लाद समान ॥

इनका उत्थान नहीं हुआ तो क्या तुम्हारा उत्थान कभी सम्भव है?

शिष्य – गुरुदेव! स्त्री जाति तो साक्षात् माया की मूर्ति है, जैसा कि रामचरितमानस में भी लिखा है –

“नारि विष्णु माया प्रकट”

मानो मनुष्य के अधःपतन के लिए ही स्त्री की सृष्टि हुई है, ऐसी स्थिति में क्या उन्हें भी ज्ञान-भक्ति का लाभ सम्भवहै?

स्वामी जी – किस शास्त्र में लिखा है कि स्त्रियाँ ज्ञान-भक्ति की अधिकारिणी नहीं हैं?

जिस समय भारत में ब्राह्मण-पण्डितों ने ब्राह्मणेतर जातियों को वेदपाठ का अनधिकारी घोषित किया, साथ ही स्त्रियों के भी सब अधिकार उस समय छीन लिये गये, अन्यथा वैदिक युग में देखो तो मैत्रेयी, गार्गी……….आदि ब्रह्मविचार में ऋषियों से कुछ कम नहीं रहीं हैं ।

ना वेदविन्मनुते तं बृहन्तम् ।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण- ३/१२/९/७)

तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन ।
(बृहदारण्यकोपनिषत्-४/१०/२२)

अर्थात् जिस प्रकार पुरुष ब्रह्मचारी रहकर तप व योग द्वारा ब्रह्मप्राप्ति करते थे, उसी प्रकार कितनी ही स्त्रियाँ ब्रह्मवादिनी ब्रह्मचारिणी हुई हैं ।

सर्वाणि शास्त्राणि षडंग वेदान्, काव्यादिकान् वेत्ति, परञ्च सर्वम् ।
तन्नास्ति नोवेत्ति यदत्र बाला, तस्मादभूच्चित्र- पदं जनानाम् ॥

(शंकर दिग्विजय ३/१६)

सभी शास्त्रों, अंगों सहित वेदों व काव्यों की ज्ञाता भारती-देवी से श्रेष्ठ कोई विदुषी नहीं थी ।

अत्र सिद्धा शिवा नाम ब्राह्मणी वेद पारगा ।
अधीत्य सकलान वेदान लेभेऽसंदेहमक्षयम ॥

(महाभारत उद्योग पर्व १९०/१८)

वेदों में पारंगत शिवा नामक ब्राह्मणी ने सभी वेदों का अध्ययन कर मोक्ष प्राप्त किया ।सहस्त्र वेदज्ञ विप्र-सभा में गार्गी ने ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य को शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया । इन सब आदर्श विदुषी स्त्रियों को जब उस समय अध्यात्म ज्ञान का अधिकार था तब आज क्यों नहीं?

श्री प्रह्लाद जी ने भी तो यही कहा –

“स्त्रीबालानां च मे यथा”
(भा. ७/७/१७)

स्त्री हो अथवा बालक सबको मेरे समान ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।भारत वर्ष की अवनति का कारण ही है – नारी शक्ति का विद्रोह रूप अपमान ।

फिर मनु जी ने तो कहा है –

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाक्रियाः ॥

(मनु स्मृति-३/५६)

स्वामी जी की प्रबल इच्छा थी कि भारत की अविवाहित बालिकाओं के लिए ऐसा कोई मठ बने जहाँ उन्हें निःशुल्क आवास, भोजन व शस्त्रों तथा शास्त्रों की समुचित शिक्षा प्राप्त हो सके । जो चिर कौमार्य – वृत का पालन करने की इच्छा रखेंगी, उन्हें मठ की शिक्षिका तथा प्रचारिका बनाया जायेगा, जिससे वे देश-विदेश में जाकर नारी शक्ति को प्रबुद्ध कर सकेंगी । त्याग, संयम एवं सेवा ही उनके जीवन का व्रत होगा तब फिर से यह भूमि सीता, सावित्री और गार्गी से सज्जित हो सकेगी ।

कुछ ब्रह्मवादिनियों के नाम इस प्रकार हैं –

ऋग्वेद की ऋषिकायें –

घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत् ।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति: ॥
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी ।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती ॥
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा ।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता: ॥

(बृहद्देवता २/८४, ८५, ८६)

घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या – सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हुई हैं ।

भूल गये, विदेहराज जनक की सभा में महर्षि याज्ञवल्क्य से ब्रह्मवादिनी वाचक्नवी का धर्म के गूढ़ तत्त्वों पर कैसा शास्त्रार्थ हुआ था ।वहाँ तो वाचक्नवी के स्त्री होने पर कोई बात नहीं उठायी गई है फिर आज स्त्री का प्रचारिका बनना, स्त्री का कथा कहना प्रश्नवाचक क्यों है?

आश्चर्य तो यह है कि ऐसे संकीर्ण विचारकों को ही अधिक विद्वान् कहा और समझा जाता है । इससे अधिक कदर्थना क्या होगी? वस्तुतः न वे धर्मज्ञ हैं, न ही धर्म प्रचारक, हाँ, धर्मध्वजी अवश्य हैं; जो भारतीय संस्कृति को स्वतन्त्र स्वदेश में ही पल्लवित होने में परिपन्थी बन रहे हैं ।

भारत व भारतीयता जिनका प्राण थी और वे स्वयं भारत के प्राण थे ऐसे महामना श्री मदनमोहन मालवीय जी, देश व धर्म का ऐसा कोई कार्य नहीं जिसमें श्री मालवीय जी के उदार हृदय ने भाग न लिया हो ।बात उस समय की है जब इन्हीं संकीर्ण विचारों के चलते कल्याणी नामक छात्रा को हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में बहुत आग्रह करने पर भी वेद-कक्षा में प्रवेश प्राप्त नहीं हुआ ।

विद्वान् कहे जाने वाले संकीर्ण विचारकों का कथन था कि स्त्रियों को वेदाधिकार नहीं है ।विवादों में एक ओर समर्थन था तो दूसरी ओर विरोध । समय व्यतीत होता रहा, निर्णय तक कोई नहीं पहुँच सका । अन्त में हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी ने धर्म प्राण मालवीय जी की अध्यक्षता व अनेकों गणमान्य विद्वानों की उपस्थिति में शास्त्रों के आधार पर विचार-विमर्श के उपरान्त यह निर्णय दिया –

स्त्रियों को भी पुरुषों की भाँति वेदाधिकार है । २१ अगस्त सन् १९४६ को स्वयं महामना मालवीय जी ने इस निर्णय की घोषणा की । तदनुसार कुमारी कल्याणी को वेद-कक्षा में प्रवेश प्राप्त हुआ और विद्यालय में स्त्रियों के वेदाध्ययन पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध न रहने का निर्णय हुआ ।

अब भी कोई दुराग्रह करे तो इसका कोई उपचार नहीं । लोकापवाद तो सीता जी के अग्नि-परीक्षा दिये जाने पर भी समाप्त न हो सका था किन्तु इतना अवश्य है, ऐसे हठ धर्मी धर्मप्रेमी तो कदापि नहीं किन्तु काष्ठ के घुन की भाँति धर्म को खोखला करने की पहल अवश्य कर रहे हैं ।

स्त्री को कथा-वाचन का अधिकार ।

श्रुतिः स्मृति उभे नेत्रे विप्राणां प्रकीर्तिते ।
एकेन विकलः काणः द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ॥

(हारीत संहिता)

श्रुति व स्मृति का ज्ञान ही ब्राह्मण के दो नेत्र हैं, इनमें से यदि एक का भी ज्ञान नहीं है तो वह काना है और यदि दोनों के ही बोध से रहित है तो वह अन्धा है ।किन्तु भागवत धर्म वह मार्ग है जहाँ अन्धा भी स्खलन, पतन के भय से सर्वथा मुक्त होकर दौड़ सकता है ।

योगेश्वर श्री कवि जी के वचन –

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥

(भा. ११/२/३४)

भोले-भाले अज्ञानी जन भी सुगमता से भगवत्प्राप्ति कर सकें, इसके लिये स्वयं श्री भगवान् ने अपने मुख से जो मार्ग बताया है, वही “भागवत धर्म” है । यह भागवत धर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तो है ही, गोपनीय होने से स्वयं श्री भगवान् के मुख से ही प्रकट हुआ है, अन्यथा वर्णाश्रम धर्मों की भाँति मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि स्मृतिकारों से भी प्रकट कराया जा सकता था ।

यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥

(भा. ११/२/३५)

सबसे प्रथम बात भागवत धर्म मनुष्य मात्र का धर्म है । यह इस धर्म की महत्ता है कि बड़े-बड़े विघ्न भी भागवतधर्मावलम्बी को चलायमान नहीं कर सकते हैं । यह वो सुगम राजपथ है, जिस पर अन्धाव्यक्ति भी स्खलन-पतन के भय से मुक्त होकर दौड़ते हुए जा सकता है ।नेत्रनिमीलन से तात्पर्य जिसे श्रुति-स्मृति दोनों का ही ज्ञान नहीं है, ऐसी स्थिति में उससे यदि किसी विधि-विधान का अतिक्रमण भी हो जायेगा तो भी दोष न लगकर उसे फलप्राप्ति ही होगी ।

वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ।
(भा.माहा. २/६७)

वेद-उपनिषद वृक्ष ठहरे और श्रीमद्भागवत गलित मधुर फल ।

फल की मधुरता, उपयोगिता को वृक्ष कभी प्राप्त नहीं कर सकता है । इसी कारण कहीं-कहीं स्मृतियों से विरोध भी देखा गया है । स्वयं श्री भगवान् ने किया – यथा स्मृति-ग्रन्थों में समुद्र यात्रा का निषेध किया गया है किन्तु भगवान् श्रीरामने समुद्र पार सेतु निर्माण कर समुद्र यात्रा की एवं भगवान् श्रीकृष्णने तो समुद्र में ही द्वारका का निर्माण कराके निवास किया ।

देश, काल परिस्थितियों के अनुसार स्वयं भगवान् ने भी स्मार्त-मर्यादा को स्वीकार नहीं किया  (सभी धर्मों को छोड़कर ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ मात्र वैष्णव धर्म का समर्थन किया) ।

धन्य है,

यदि स्मार्त मर्यादा को मानकर सेतु निर्माण कर समुद्र यात्रा न करते तो पापिष्ठ रावण का वध कैसे होता? भगवान् श्रीकृष्ण यदि द्वारका का निर्माण करा समुद्र-निवास न करते तो दुष्ट कालयवन का वध कैसे होता? अतः धर्म को प्रधान रखते हुए, स्मार्त मर्यादा के विरुद्ध आचरण करते हुए भी भगवान् को देखा गया है ।

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥

(महाभारत, वन पर्व-३१३/११७)

तर्केऽप्रतिष्ठा श्रुतयो विभिन्नाः नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥

(गरुड़ पुराण-१, १०९.५१)

भारत के कट्टर स्मार्त लोग समुद्र पार करके देशान्तरों में सनातन धर्म का प्रचार करने नहीं गये अतः निरन्तर धर्म का संकुचन ही होता रहा । इसके विपरीत बौद्धों के द्वारा विदेशों में बौद्ध धर्म का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ । परिणाम में थाइलैण्ड, बर्मा आदि सम्पूर्ण मध्य एशिया बौद्धधर्मावलम्बी हो गया । कोई समय था, जब एक सनातन धर्म ही समग्र विश्व में था । हमारे पौराणिक इतिहास के अनुसार सातों द्वीप सनातनी थे ।

श्रीमद्भागवत के अनुसार –

अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ।
(भा. ९/४/१५)

सूर्यवंशी महाराज अम्बरीष सातों द्वीपों के सम्राट थे । जो परम कृष्ण भक्त थे (महाराज अम्बरीष की अनन्य कृष्णभक्ति ९/४/१८-२१ में दृष्टव्य है) अम्बरीष जी की ही भाँति उनकी सम्पूर्ण प्रजा (सप्तद्वीपों की प्रजा) भी उत्तमश्लोक भगवान् श्री हरि की कथा प्रेम से श्रवण करती तो कभी गान करती, इसके अतिरिक्त प्रजाजनों को स्वर्ग की भी कोई इच्छा नहीं थी ।

मध्यएशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार से हानि यह हुई कि अहिंसा प्रधान बौद्ध धर्मावलंबियों पर अपनी क्रूरता, कट्टरता, हिंसा प्रधान वृत्ति के लिए कुख्यात यवनों ने धर्मान्तरण कराके उन्हें यवन बना डाला ।

भारत में क्या-क्या कहर बरसाया गया था । क्रूरकर्मा फिरोजशाह तुगलक के समय में हिन्दू पुजारी व प्रचारकों को जीवित ही आग में फेंक दिया जाता था । बाबर का पूर्वज तैमूर लंग तो ९० हजार सैनिक लेकर मेरठ, हरिद्वार, शिवालिक, नगरकोट व जम्मू तक मन्दिरों-मूर्तियों का भंजन व इस्लाम न स्वीकार करने वाले हिन्दुओं का कत्लेआम करता रहा ।

बुद्धदेव नामक हिन्दू धर्म प्रचारक का मस्तक धड़ से अलग कर दिया था । सिक्खों के पंचम गुरू श्री अर्जुनदेव को क्या कम अमानुषिक यातनाएं दी गयीं, धधकते अंगारों पर बिठाया गया, ऊपर से जलती हुई बालू बरसाई गई, इतना ही नहीं, गाय की ताजी खाल खींचकर उसमें लपेटकर सिलने का उपक्रम भी किया गया और नवम गुरू श्री त्यागराय (तेग बहादुर) पर क्रूर मुगल औरंगजेब के अत्याचार आज भी हृदय में प्रतिकार की ज्वाला को भड़का देते हैं । लोहे के गर्म खंबे से चिपकाया जाना, जलती हुई बालू बरसाना और अन्त में धड़ से मस्तक अलग कर दिया जाना, क्या यह मनुष्यों का कार्य हो सकता है? दशम गुरू गोविन्द सिंह के दो पुत्र जोरावरसिंह व फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर जीवित ही दीवार में चिन दिया गया । कहाँ तक करें इन क्रूरों की असच्चर्चा, भारत भूमि के तो बलिदानियों की नामावली से ही एक नया ग्रन्थ बन सकता है।

बौद्धों पर भी इन नरपिशाचों का कहर कुछ कम नहीं था । अभी कुछ समय पूर्व ही बामियान, मध्य एशिया में संसार की सबसे विशाल बुद्ध मूर्ति को तोड़ा गया और धर्मान्तरण की परम्परा तो अब तक जीवन्त है ।

संकीर्णताओं ने इतना दुर्बल कर दिया हिन्दू समाज को कि कश्मीर के महाराज ने घोषणा की, जिन हिन्दुओं का बलात् धर्मान्तरण करा मुसलमान बनाया गया है, वे पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर सकते हैं किन्तु इस पर काशी के विद्वत्समाज ने ही विद्रोह खड़ा कर दिया कि अब उन्हें स्वीकार नहीं किया जायेगा । ऐसे वेदज्ञान से बहुत बड़ी हानि हुई इस राष्ट्र व धर्म की ।

भूल गये अपने ऋषियों का आचरण –

सरस्वत्यज्ञया कण्वो मिश्र देशमुपाययो ।
म्लेच्छान् संस्कृत्यं चाभाष्य तदा दश सहस्रकम् ॥

(भविष्यपुराण ४/२१/१६)

सरस्वती की आज्ञा से महर्षि कण्व मिस्र देश गये और वहाँ दस हजार म्लेच्छों को उन्होंने सुसंस्कृत बनाया । जो शुद्ध व पवित्र होकर भारत लौटना चाहते थे उन्हें पुनः स्वीकार कर लिया गया । महाराष्ट्र के ‘चित्पावन ब्राह्मण’ आज महान वेदज्ञ माने जाते हैं, जो वंशानुगत यहूदी और मिस्र देश के आसपास से आये हुए हैं । इसी प्रकार ईरानी, शक, हूण, मग एवं यहूदी आदि अनेक जातियों ने हिन्दू संस्कृति को अपनाया और उन्हें ऋषियों द्वारा स्वीकार किया गया ।

स्मृति में भी स्त्री समर्थन –

आज हठधर्मिता के कारण मनुष्य इतना अन्धाहो गया कि श्रुति-स्मृति धर्मों के सिद्धान्त भी यथार्थ रूप से न समझते हुए मात्र दुराग्रह में ही पड़ा हुआ है ।

ध्यान रहे, सबसे प्रमुख स्मृति शास्त्र तो श्रीमद्भगवद्गीता ही है । जहाँ स्वयं श्री भगवान् ने कहा है –

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥

(गी. ९/३२)

पापयोनि होते हुए भी स्त्री, वैश्य और शूद्र सर्वथा मेरे शरणागत होकर मुझे प्राप्त कर लेते हैं ।

कहाँ है स्मृति में स्त्रियों का बहिष्कार ।

स्मृति-शास्त्र का अन्तिम उद्घोष है –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

(गी. १८/६६)

सभी धर्मों को त्याग कर मेरे शरणागत हो जाओ । सर्वधर्मान् से वैदिक धर्म, श्रुति धर्म, स्मृति धर्म, सबका ग्रहण हो जाता है ।

क्यों हुआ वैष्णव धर्म सर्वश्रेष्ठ?

श्री भागवत धर्म में नहीं है विषमता –

नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च ।
अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम् ॥
एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च ।
साधवे शुचये ब्रूयाद् ‍भक्तिः स्याच्छूद्रयोषिताम् ॥

(भा.११/२९/३०, ३१)

श्रीभगवान् का आदेश है – दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन एवं अविनीत पुरुष को यह उपदेश कभी मत देना । जो इन दोषों से रहित ब्राह्मण भक्त हो, प्रेमी हो, साधु-स्वभाव हो और पवित्र चरित्रवान हो उसी को यह उपदेश सुनाना चाहिए । मेरे प्रति प्रेम रखने वाले स्त्री, शूद्र भी हैं तो उन्हें अवश्य ही यह उपदेश करना चाहिए ।

नमो महद्भयोऽस्तु नमः शिशुभ्यो नमो युवभ्यो नम आ वटुभ्यः ।
ये ब्राह्मणा गामवधूतलिङ्गाश्चरन्ति तेभ्यः शिवमस्तु राज्ञाम् ॥

(भा. ५/१३/२३)

शिशु हो, युवा हो, क्रीड़ारत बालक हो अथवा ब्रह्मज्ञानियों में वयोवृद्ध हो वह पूज्य है । इससे विपरीत भक्तिहीन पुरुषों को भागवत में अधिकार नहीं है और ऐसे ही लोग “मन क्रम बचन लबार तेहि वक्ता कलिकाल महँ ।।” आजकल वक्ता बनकर संकीर्णता का प्रसार कर रहे हैं जबकि भगवान् वेद व्यास ने वैदिक संकीर्णताओं के उन्मूलन हेतु भागवत-धर्म का प्राकट्य किया । श्रौत, स्मार्त धर्मों में अवश्य स्त्री, शूद्र का बहिष्कार है किन्तु वैष्णव धर्म में इस संकीर्णता को कोई स्थान नहीं है । मेहा धीमर की स्त्री जीवाबाई एवं रजोदर्शन ‘सद्या प्रसूता’ में वारमुखी का रंगनाथ को मुकुट धारण कराना क्या प्रमाण नहीं है?

श्रीमद्भागवत में उत्तरा के गर्भ में भगवान् का प्रवेश भी परम प्रमाण है । भक्तिहीन पुरुष ही श्री भगवान् और श्री मद्भागवत पर भी अपने संकीर्ण विचार आरोपित करते हैं । उन्हें भगवान् के ये वाक्य भी समझ में नहीं आते हैं ।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥

(भा.११/१४/२१)

श्री भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है ।

धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥

(भा.११/१४/२२)

भक्तिहीन को सत्य, दया, तपस्या एवं विद्या भी भलीभाँति पवित्र नहीं कर सकेगी, इस दृष्टि से तो संकीर्ण विचारकों से भक्तियुक्त चाण्डाल भी श्रेष्ठ है । अनन्यता का दावा करने वाले भक्त नहीं, भगवद्‌‌-द्रोही हैं । स्वयं भगवान् श्रीराम ने शबरी के प्रति कहा –

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥

(रा.च.मा.अरण्य. ३५)

भक्तिहीन मनुष्य जलहीन बादल की भाँति शोभाहीन है । भक्ति में जातिगत विषमता का कोई स्थान नहीं है ।श्रीमद्भगवद्गीता में भी तो भगवान् ने कहा –

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥

(गी. ९/३०, ३१, ३२)

संसार में जितनी भी पाप योनियाँ हैं, ये सभी परागति प्राप्त कर लेती हैं । संकीर्ण लोगों को चाहिए कि वे ठीक से भागवत-धर्म समझें, विषैली आलोचनाओं के द्वारा समाज को विषमता का विष न पिलाएं । स्वयं भगवान् ने (भा. ६/१६/४१, ४२) में जो भागवतधर्म का उपदेश किया है, क्या आलोचक वक्ताओं को ये सिद्धान्त दिखाई नहीं पड़ते? क्या दिवा-उलूक हैं?

कहाँ है भागवत धर्म में विषमता –

न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः ।
सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः ॥
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥

(भा.११/२/५१, ५२)

न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत ।

यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत है ।

श्रौत-स्मार्त धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवतधर्म में घटाने लगते हैं । भक्तमाल से वारमुखी की कथा इन्हें सुनाई जाए तो आनन्द के स्थान पर अपार कष्ट ही होगा ।

भक्त रविदास, श्वपच वाल्मीकि आदि की कथा सुनने से तो प्राणान्त ही हो जाएगा ।

मात्र शुद्ध भक्तों को ही इन चरित्रों के कथन, श्रवण से आनन्द की प्राप्ति होगी अन्य तो कुतर्कों के मकड़जाल में ही फँसे रहेंगे ।

ऋषे विदन्ति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः ।
यदा तदेवासत्तर्कैस्तिरोधीयेत विप्लुतम् ॥

(भा.२/६/४०)

श्री ब्रह्मा जी ने कहा – नारद! शान्त अन्तःकरण, इन्द्रियाँ एवं शरीर से ही उस परम तत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है । असत्‌‌ पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का बिछा हुआ जाल तो उसे ढक ही देता है ।

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥
(गी. ९/३)

श्री भगवान् ने कहा – ऐसे श्रद्धा रहित लोग मुझे प्राप्त न करके मृत्यु रूप संसार चक्र में ही भटकते रहते हैं । जिस समय गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक गो हत्यारे को भगवन्नाम से शुद्ध कर अपने साथ भोजन कराया, उस समय रुष्ट होकर काशी के विद्वत्‌ समाज ने उन्हें बहिष्कृत कर दिया जबकि श्रीमद्भागवत में शुकाचार्य का कथन है कि

ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान् ।
श्वादः पुल्कसको वापि शुद्ध्येरन् यस्य कीर्तनात् ॥

(भा.६/१३/८)

ब्राह्मण, पिता, गो, माता, आचार्य की हत्या करने वाले महापापी भी भगवन्नाम-संकीर्तन से शुद्ध हो जाते हैं ।

हयमेधेन पुरुषं परमात्मानमीश्वरम् ।
दृष्ट्वा नारायणं देवं मोक्ष्यसेऽपि जगद्वधात् ॥

(भा.६/१३/७)

एक ब्राह्मण और गो का वध करने वाला ही नहीं सम्पूर्ण संसार का वध करने वाला महापातकी भी भगवद्‌-आराधन से पातक-मुक्त हो जाता है । संकीर्ण, नास्तिक, अश्रद्धालु जन इन सिद्धान्तों को कभी नहीं समझ सकते, भले आजीवन कथा कहें अथवा सुनें ।

इनका कथा-कथन मेढकों की ध्वनि की भाँति ही है ।

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई ।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥

(रा.च.मा.किष्कि.१५)

श्रीमद्भागवत का अन्तिम उद्‌घोष है –

नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥

(भा. १२/१३/२३)

भगवन्नाम से सर्वपाप अर्थात्‌ सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं ।

क्या सर्वपाप में रजोदर्शन रूप ब्रह्महत्या की शुद्धि नहीं होगी?

“स्त्री को कथा कहने का अधिकार नहीं”

इस प्रकार की बातें भागवतधर्म के प्रति अश्रद्धा, अविश्वास को प्रकट करती हैं ।

वैष्णव धर्म ने वैदिक धर्म मर्यादाओं के तट बन्धनों को तोड़कर भगवन्नाम की सबको अधिकारिता प्रदान की, जिससे विश्व में शान्ति व सद्भाव की वृद्धि हुई ।

धन्य हैं वे धर्मप्रचारक व धर्म प्रचारिणी संस्थाएं जिनके द्वारा सम्पूर्ण विश्व में भगवन्नाम रूप वैष्णवधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ व हो रहा है ।

धन्य हैं श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी व उनका अन्तर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ (ISKCON), जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व भर में भगवन्नाम-वैष्णवधर्म की अलख जागी ।

यही है श्रीमच्चैतन्य महाप्रभु जी की सच्ची सेवा । सनातन धर्म अन्य संस्कृतियों की भाँति नारी शक्ति को धकेलने, कुचलने वाला धर्म नहीं है । यहाँ तो नारी को साक्षात् ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है, सम्पूर्ण सृष्टि की उद्भव, स्थिति व संहारकारिणी आद्यशक्ति को पराशक्ति के रूप में स्वीकार किया है ।

मीरा, करमैती, रत्नावती ही नहीं दक्षिण में आण्डा (रंगनायकी), आवडयक्काल, इस्लाम में ताज, रबिया, हसीना-हमीदा एवं विदेश की डॉ. एनी बेसेंट, जिनका जन्म आयरलैण्ड व लालन-पालन इंग्लैण्ड में हुआ किन्तु भारत को जन्मभूमि मानने वाली यह महिला सनातन धर्म से बहुत प्रभावित थी । इसी प्रकार रूस की एच.पी.ब्लेवास्तकी, इटली की फ्लोरेन्स, साध्वी मेरी मगडालेन, अवीलाका ओल्ड केसराइल की कुमारी टेरसा, हंगरी की साध्वी एलिजाबेथ, अलक्जेन्डरिया (मिश्रदेश) की देवी सिंक्लेटिका, सायेना, इटली की साध्वी कैथेरीन …………आदि विदेशी महिलायें नारी शक्ति को ब्रह्मरूप में देखने वाली भारतीय संस्कृति से प्रभावित थीं ।

जहाँ वैष्णवधर्म ने नारी-शक्ति को इतना सम्मान दिया, वहीं स्मार्त धर्म ने नारी शक्ति को बाँध दिया ।

इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् ।
धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥

(भा. ७/९/३८)

देश, काल, परिस्थिति के अनुसार धर्म में जो परिवर्तन आता है, उसे ही युगानुवृत्त कहा गया है ।

वैष्णव धर्म युगानुवृत्त धर्म है किन्तु इसका अर्थ मनमानेपन को धर्म के रूप में सिद्ध करना नहीं है । स्वतन्त्रता है, किन्तु स्वच्छन्दता नहीं । अपने देश व धर्म को सशक्त व समृद्ध बनाने के लिए सम्पूर्ण नारी शक्ति को आगे आना चाहिए ।

हमारी आर्य संस्कृति में नारी ही माता के रूप में प्रथम गुरु है । यदि नारी शक्ति प्रबुद्ध होगी तो देश प्रबुद्ध होगा । नारी शक्ति प्रबुद्ध होगी तो प्रत्येक बालक का भविष्य उज्जवल होगा । आलोचकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि किसी स्त्री में सनातन भागवत धर्म का प्रचार करने की क्षमता है तो उसका विरोध करने से निश्चित ही वे भगवद् कोप के भाजन होंगे ।

भूलो मत एक रत्नावती के अपराध से सिंह रूप में आये साक्षात् नृसिंह द्वारा आलोचकों को उचित दण्ड प्राप्त हुआ और एक मीरा के अपराध से सारा चित्तौड़ त्राहि-त्राहि करने लगा था ।

“छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्”
(भा. ३/१६/६)

वैष्णवापराध तो यदि उनकी (भगवान् की) अपनी चिन्मयी भुजा भी करती है तो वे उसे भी दण्डित करेंगे ।

दूरे हरिकथाः केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥

(भा. ११/५/४)

स्त्री, शूद्र तो विशेष दया के पात्र हैं क्योंकि बार-बार धकेले जाने से ये कथा-कीर्तन से दूर हो गये हैं अतः इनके कथा-कीर्तन की सुविधा का अवश्य ध्यान रखा जाये ।

स्वयं जगद्गुरू भगवान् श्रीकृष्ण इस सिद्धान्त के पोषक हैं ।

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥

(गी. ९/३२)

स्त्री हो अथवा शूद्र, वैष्णव धर्म में सबका समान अधिकार है । परागति की प्राप्ति के सब अधिकारी हैं । यही सिद्धान्त गोस्वामी तुलसीदास जी की वाणी से भी स्पष्ट हुआ है –

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
(रा.च.मा.बाल. १८)

‘गिरा’ शब्द स्त्रीलिंग है व ‘अरथ’ पुल्लिंग, पुनः ‘जल’ पुल्लिंग है व ‘वीचि’ स्त्रीलिंग । कहने-सुनने में भेद है, स्वरूपतः दोनों का अभेद ही हैं ।

फिर बिना शक्ति के कोई उपासना पूर्ण नहीं होगी । भगवान् शिव को अर्द्धनारीश्वर कहा गया । वैष्णवों में भी युगल (शक्ति एवं शक्तिमान) उपासना है ।

लक्ष्मी-नारायण, राधा-कृष्ण, सीता-राम, उमा-महादेव …………………आदि ।

भागवत धर्म अथवा वैष्णव धर्म की उदारता –

सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः ।
गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ॥
विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः ।
रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन् युगेऽनघ ॥

(भा. ११/१२/३, ४)

दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक, विद्याधर, मनुष्यों में वैश्य, शूद्र, स्त्री और चाण्डालादि, राजसी-तामसी प्रकृति के अनेक जीवों ने परमपद की प्राप्ति की । जैसे – वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्म व्याध, कुब्जा, ब्रजगोपीजन, यज्ञपत्नियाँ आदि ।

श्री उद्धव जी के वचन –

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः  ।
नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि साक्षा-
च्छ्रेयस्तनोत्यगदराज इवोपयुक्तः ॥

(भा. १०/४७/५९)

ये वनचरी ब्रजगोपीजन जो व्यभिचार से दूषित, ज्ञान एवं जाति से भी हीन हैं किन्तु धन्य है श्रीकृष्णमें इनके अनन्य प्रेम को ।

इससे सिद्ध होता है कि भगवान् से प्रेम करने के लिए आचार, जाति और ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है । भला, अमृत पीने में भी आचार, जाति और ज्ञान की क्या अपेक्षा?

धिग् जन्म नस्त्रिवृद् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।
धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥

(भा. १०/२३/३९)

और इसके विपरीत श्रीकृष्णविमुखता में उच्च कुल, ज्ञान, यज्ञ, व्रतादि की भी सार्थकता नहीं है ।

एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो
गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढभावाः ।
वाञ्छन्ति यद्‍ भवभियो मुनयो वयं च
किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ॥

(भा. १०/४७/५८)

श्री उद्धव जी ने श्रीकृष्णमें प्रेम होने से वनचरियों का जीवन ही सफल व श्रेष्ठ माना । इससे रहित होने पर तो ब्रह्मा का जन्म भी व्यर्थ है ।

जितमजित तदा भवता यदाऽऽह भागवतं धर्ममनवद्यम् ।
निष्किञ्चना ये मुनय आत्मारामा यमुपासतेऽपवर्गाय ॥

(भा. ६/१६/४०)

स्वयं भगवान् के श्रीमुख से कथित भागवत धर्म अनवद्य अर्थात् विषमता के दोष से रहित सर्वोच्च धर्म है ।

विषममतिर्न यत्र नृणां त्वमहमिति मम तवेति च यदन्यत्र ।
विषमधिया रचितो यः स ह्यविशुद्धः क्षयिष्णुरधर्मबहुलः ॥

(भा. ६/१६/४१)

यह धर्म “यह मैं”, “यह मेरा”, “यह तू”, “यह तेरा”, “यह स्त्री”, “यह पुरुष” के दुराग्रह से रहित सर्वथा शुद्ध है ।

अन्य जिस धर्म में इस प्रकार का दुराग्रह है, वह अशुद्ध, नष्ट होने वाला अधर्म ही है ।

पुरुष ही कथा कह सकता है, स्त्री को कथा कहने का अधिकार नहीं है, भागवत धर्म की दृष्टि में इस प्रकार की विषम बुद्धि की बात अधर्म ही है ।

न व्यभिचरति तवेक्षा यया ह्यभिहितो भागवतो धर्मः ।
स्थिरचरसत्त्वकदम्बेष्व पृथग्धियो यमुपासते त्वार्याः ॥

(भा. ६/१६/४३)

भागवत धर्म में तो अचर-सचर भी समान हैं फिर स्त्री-पुरुष का भेद कि पुरुष ही कथा कहने के अधिकारी हैं, स्त्री नहीं, ये सभी मनमाने सिद्धान्त भागवत धर्म के सर्वथा विरुद्ध हैं ।

यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥
(भा. ६/१६/४४)

एक बार भगवन्नाम श्रवण मात्र से चाण्डाल भी पवित्र हो जाता है, यह भागवत धर्म की सामर्थ्य है ।

यह सामर्थ्य तो न वैदिक धर्म में है, न स्मार्त धर्म में । वेद और स्मृति के धर्म तो स्त्री, शूद्र को एक ओर करके चलते हैं ।

किन्तु भागवत धर्म –

बैठत सबै सभा हरि जू की, कौन बड़ौ को छोट?
सरन गएँ प्रभु काढ़ि देत नहिं, करत कृपा की कोट ॥
सूरदास पारस के परसैं मिटति लोह की खोट ।
बड़ी है कृष्ण नाम की ओट ।

(सूर विनय पत्रिका-१४१)

भक्त रविदास ने जिस समय मूर्ति-पूजा आरम्भ की तो काशी के विद्वानों ने विरोध किया, राजा से शिकायत की – महाराज! रैदास का यह कर्म स्मृति धर्म के सर्वथा विरुद्ध है ।

स्मृतौ –

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यपूजा व्यतिक्रमात् ।
तत्रस्तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ॥

अर्थात् जहाँ पूज्य की पूजा न करके अपूज्यों की पूजा होती है, वहाँ दुर्भिक्ष, मरण व भय सदा ही रहता है ।

रैदास को मूर्ति पूजा का कोई अधिकार नहीं है । प्रथम तो राजा ने रैदास जी को भय दिखाया, अनन्तर परीक्षा के लिए यह निश्चय किया गया कि भगवान् को यहाँ सिंहासनासीन कर दिया जाये, उन्हें यदि रैदास की पूजा प्रिय होगी तो रैदास की गोद में आ जाएंगे और ब्राह्मणों की पूजा प्रिय होगी तो उनकी गोद में चले जाएंगे । ब्राह्मणों को यह अभिमान था कि हमें छोड़कर भला शूद्र के पास भगवान् क्यों जाने लगे अतः सबसे पहले ब्राह्मणों ने मृगचर्म, बाघम्बर पर बैठकर यज्ञादि किया, स्तोत्रों से आवाहन किया, किन्तु बहुत प्रयास के बाद भी मूर्ति हिली तक नहीं किन्तु रैदास जी को दण्डकारण्य के ऋषियों को छोड़कर, प्रभु का शबरी के आश्रम में जाना स्मरण था ।

विरद हेतु पुनीत परिहरि, पाँवरन सों प्रीति ।

(तुलसी विनय पत्रिका-२१४)

श्री रैदास जी ने भावाभिभूत होकर यह पद गाया –

हे हरि आवहु वेगि हमारे ।
जैसे आये द्रुपद सुता के, गज के व्याज सिधारे ॥
ज्यों प्रह्लाद हेतु नरहरि ह्वै, प्रगटे बज्र खम्ब को फारे ।
पति राखो ‘रैदास’ पतित की, दशरथ राज दुलारे ॥
पद पूर्ण होते ही ससिंहासन भगवान् श्री रैदास जी के हृदय से जा लगे ।
जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा वसब हमारा ।
नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कहै ‘रैदास’ चमारा ॥

श्री प्रह्लादजी के वचन –

नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजाः ।
प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥

(भा. ७/७/५१)

अतः श्री प्रह्लाद जी ने कहा – हे असुर बालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिए न ब्राह्मण होना आवश्यक है, न देवता और न ऋषि होना ही ।

सदाचार, बहुज्ञता, दान, तप, यज्ञ, शारीरिक-मानसिक पवित्रता एवं बड़े-बड़े व्रतानुष्ठानों की भी कोई आवश्यकता नहीं है ।

वेदमर्यादा सीमित है किन्तु वैष्णव मर्यादा बहुत उदार है ।

नांचत, नाऊ, भाट, जुलाहौ, छीपा नीकै गावत ।
पीपा अरु रैदास विप्र जयदेव सुभलैं रिझावत ।
नाचत गावत हरि सुख पावत ।

(व्यास वाणी-२०९)

कृष्णावतार केवल ब्राह्मणों के लिए तो हुआ नहीं, गोपीजनों ने कहा –

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
(भा. १०/३१/१८)

यह अवतार विश्वमंगल के लिए हुआ है अतः यहाँ तो कान्हा भंगी के साथ भी क्रीड़ा हुई है ।

श्री ब्रह्मा जी ने भी कहा –

तद्वा इदं भुवनमङ्गल मङ्गलाय ।
ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानाम् ।

(भा. ३/९/४)

निराकार सत्ता का साकार होने का कारण ही था – भुवनमंगलमंगलाय ।

भगवान् का यह रूप सम्पूर्ण संसार के मंगल के लिए प्रकट हुआ फिर भुवनमंगल में क्या स्त्री-शूद्र का मंगल नहीं है?

जन्मजात अपवित्र वह चाण्डाल भी ब्राह्मण से श्रेष्ठ है, जिसने भगवान् में सर्वात्म समर्पण कर दिया है किन्तु सर्वात्म समर्पण करने वाला चाण्डाल कहाँ मिलेगा?

अरे भाई, यूं तो ऐसा कोई ब्राह्मण भी नहीं मिलेगा, जो सभी आर्य वैदिक मर्यादाओं का पालन कर रहा हो, आंशिक वैदिक धर्म का पालक भी जब याज्ञिक और पण्डित माना जाता है तब आंशिक भक्ति भी जिसमें है, वह क्या भक्त नहीं है?

साधक भक्त भी तो भक्त ही है ।

गोस्वामी जी ने यहाँ तक कहा –

‘तुलसी’ जाके मुखन तें धोखेहु निकसत राम ।
ताके पग की पगतरी मोरे तन को चाम ॥

अथवा

साधन सिद्धि राम पग नेहू ।
(रा.च.मा.अयो. २८९)

श्री भगवान् के वचन –

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

(गी. ९/३०)

जो आज आंशिक भक्ति कर रहा है, वह कल निश्चित ही सिद्धा भक्ति की स्थिति पर भी पहुँचेगा फिर भक्ति की प्राप्ति तो जप, योग व अनेकों धर्मानुष्ठानों का परम फल है ।

जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥

(रा.च.मा.अरण्य. ६)

श्रीमद्भागवत वैष्णव ग्रन्थ है । वेदवृक्ष का फल होते हुए भी यह कर्मप्रधान नहीं है अतः  –

न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च ।
प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद् विडम्बनम् ॥

(भा. ७/७/५२)

श्रीमद्भागवत का इसी दृष्टि से अध्ययन व अनुशीलन होना चाहिए । यदि यहाँ भी कर्मप्रधान दृष्टि रही तो फिर श्रेष्ठ कर्मकाण्डी कर्मविद् ब्राह्मणों की भाँति पश्चाताप ही हाथ लगेगा । कर्मकाण्ड से यदि ब्राह्मण कृतार्थ हो जाते तो अपने कुल, पवित्रता, वेदाध्ययन को क्यों धिक्कारते?

क्या उनकी याज्ञिकता में भी कोई संदेह था?

अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः ।
भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ ॥

(भा. १०/२३/४९)

वे कर्मकाण्डी विप्र कृतार्थ हुए भक्ता स्त्रियों को प्राप्त करके ।

“सहज अपावन नारि” में बड़े-बड़े वेदपाठी, याज्ञिकों को पवित्र करने की सामर्थ्य आ जाती है । स्मार्त धर्म अपने स्थान पर ठीक है किन्तु भागवत धर्म में सभी धर्मों का प्रतिवाद हो जाता है, इसके अनेक उदाहरण हैं । गर्भ से अधिक घृणित व निन्दित स्थान दूसरा क्या होगा किन्तु –

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद्दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥

(भा. १/१२/७)

परीक्षित की रक्षा के लिए भगवान् ने गर्भ में प्रवेश भी किया ।

वह भी शक्ति और प्रकाश रूप से नहीं अपितु साक्षात् साकार विग्रह से ।

गर्भस्थ शिशु ने देखा –

अङ्गुष्ठमात्रममलं स्फुरत्पुरटमौलिनम् ।
अपीच्यदर्शनं श्यामं तडिद्वाससमच्युतम् 

(भा. १/१२/८)

अंगुष्ठ भर आकार है, सुन्दर श्याम शरीर पर विद्युतवत् चमकता पीताम्बर एवं मस्तक पर झिलमिलाता स्वर्णिम किरीट शोभायमान है ।

वैष्णवधर्म में तो एक ही विधि व एक ही निषेध है –

स्मर्तव्यः सततं विष्णुर्विस्मर्तव्यो न जातुचित् ।
सर्वे विधिनिषेधाः स्युरेतयोरेव किङ्कराः ॥

(पद्म.पु.उत्तर खण्ड पुर्वार्द्ध, पार्वती-शिव सम्वाद-७१/१००)

भगवद् स्मरण रूप विधि व भगवद् विस्मरण रूप निषेध के अन्य समस्त विधि-निषेध दास हैं ।

कर्मकाण्ड में भी देखें तो नाम स्मरण से ही शुद्धि है ।

ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यान्तरः शुचिः ॥

(प.पुराण.पाताल खण्ड.८०/११)

भागवत धर्म तो इतना विशाल है कि नाम के श्रवण या स्मरण मात्र से कुकुर-मांसभोजी श्वपच को न केवल सोमयाग की योग्यता प्राप्त होती प्रत्युत वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ हो जाता है ।

नोट – सोमयाग एक यज्ञ विशेष है, जिसे ब्राह्मण ही कर सकता है । यह यज्ञ करने के लिए एक वर्ष सोमलता का रसपान, दूसरे वर्ष कन्दमूल का सेवन एवं तीसरे वर्ष केवल जलपान का विधान है किन्तु नाम श्रवण, उच्चारण व स्मरण की ऐसी महिमा है कि श्वपच भी सोमयाग की अधिकारिता सहज ही प्राप्त कर लेता है ।

माता देवहूति जी के वचन –

यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद् यत्प्रह्वणाद्यत्स्मरणादपि क्वचित् ।
श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥

(भा. ३/३३/६, ७)

स्वपचहु स्रेष्ठ होत पद सेवत, बिनु गोपाल द्विज जनम न भावै ॥

सोइ भलौ जो स्यामहि गावै ।
(सूर विनय पत्रिका-१४२)

शुचिः सद्भक्तिदीप्ताग्निदग्धदुर्ज्जाति कल्मषः ।
श्वपाकोऽपि बुधैः श्लाघ्यो, न वेदाढ्‌योऽपिनास्तिकः ॥
भगवद्भक्तिहीनस्य जातिः शास्त्र जपस्तपः ।
अप्राणस्यैव देहस्य मण्डनं लोकरञ्जनम् ॥

(हरिभक्ति सुधोदय ३/११)

भगवद्भक्तिविहीन ब्राह्मण का उत्तम कुल, वेदाध्ययन, मन्त्रजप एवं तपस्यादि समस्त शव के श्रंगार की भाँति लोक-रंजन मात्र ही है ।

शास्त्रों में यह सिद्धान्त जगह-जगह स्थापित है, जिसके अनेक उदाहरण हैं । श्रीमच्चैतन्य देव के जीवन में पग-पग पर अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं । इस पर दृष्टव्य है – चैतन्य चरितामृत ।

सहज अपावनि नारि की ब्रह्मरूपता –

बहुधा लोग सनातन धर्म की आलोचना करते देखे जाते हैं । इस धर्म में नारी का सम्मान नहीं कर अत्यधिक निन्दा है जबकि सनातन धर्म में ही नारी को ब्रह्म रूप में स्वीकार किया गया है ।

ध्यान रहे, सनातन धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी धर्म ने आज तक भगवान् को स्त्री रूप में एवं स्त्री को भगवान् के रूप में नहीं देखा; यहाँ ही भगवान् मोहिनी बनते हैं और दैवी पुराण में स्वयं शक्ति का कृष्ण रूप में जन्म लेने की कथा वर्णित है ।

श्री शिव उवाच –

यदि मे त्वं प्रसन्नासि तदा पुंस्त्वमवाप्नुहि ।
कुत्रचित्पृथिवीपृष्ठे यास्येऽहं स्त्रीस्वरूपताम् ॥

(दे.पु. ४९/१६)

श्री शिव जी ने कहा – हे देवि! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो पृथ्वी पर कहीं भी पुरुष रूप से अवतरित हों और मैं स्त्री रूप से अवतीर्ण होऊँगा ।

श्री देव्युवाच –

भविष्येऽहं त्वत्प्रियार्थं निश्चितं धरणीतले ।
पुंरूपेण महादेव वसुदेवगृहे प्रभो ।
कृष्णोऽहं मत्प्रियार्थं स्त्री भव त्वं हि त्रिलोचन ॥

(दे.पु. ४९/१६)

भगवती ने कहा – हे महादेव! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं अवश्य ही वसुदेव के घर श्रीकृष्णके रूप में जन्म लूँगी और हे त्रिलोचन मेरी प्रसन्नता के लिए आप भी स्त्री रूप में जन्म लें ।

ततः समभवद्देवी देवक्याः परमः पुमान् ।
अष्टम्यामर्धरात्रे तु रोहिण्यामसिते वृषे ॥

(दे. पु. ५०/६५)

तत्पश्चात कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र वृष लग्न अर्ध रात्रि के समय भगवती ने देवकी के गर्भ से परम पुरुष के रूप में अवतार ग्रहण किया ।

अतः देवीभागवत में भी वर्णन है –

या सा भगवती नित्या सच्चिदानन्दरूपिणी ।
परात्परतरा देवी यया व्याप्तमिदं जगत् ॥

(देवी भागवत २/३६)

श्री भगवान् की ही भाँति भगवती भी षडैश्वर्य सम्पन्ना सच्चिदानन्द रूपिणी परात्पर तत्त्व है, जिस प्रकार ब्रह्म अपनी चिति शक्ति से सर्वव्यापी है उसी प्रकार भगवती भी जगत के कण कण में व्याप्त है अतः भगवती को भी ब्रह्म कहा गया । नारी शक्ति का इससे अधिक क्या सम्मान हो सकता है? यह ब्रह्मरूप ही सभी अवतारों का आदिकारण है –

रूपं यदेतदवबोधरसोदयेन शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।
आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजं यन्नाभिपद्मभवनादहमाविरासम् ॥

(भा. ३/९/२)

श्री ब्रह्मा जी ने कहा – ब्रह्म का यह रूप तत्त्व की दृष्टि से अवबोध अर्थात् ज्ञानमय है एवं उपासकों की दृष्टि से वह रस रूप है ।

ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेकमनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम् ।
प्रत्यक् प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥

(भा. ५/१२/११)

श्री जड़भरत जी ने कहा – न इसके भीतर कोई है न बाहर ही, भीतर बाहर का भाव तो वहाँ होता है जहाँ किसी वस्तु में प्रथकता होती है फिर सब कुछ तो वही है वही भीतर है वही बाहर भी । उसे ही भगवान् कहा गया है एवं उसे ही वासुदेव भी कहा गया है । ब्रह्मा जी ने उसे तात्विक दृष्टि से ज्ञानमय और आस्वाद्यदृष्टि से रसरूप कहा ।

नातः परं परम यद्‍भवतः
स्वरूपमानन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन्
भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥

(भा. ३/९/३)

ब्रह्मा जी ने कहा – हे प्रभो! आपके स्वरूप का मैं दर्शन कर रहा हूँ । आपका तेज जो आनन्द मात्र है, अविकल्प अर्थात् भेद रहित है और उसका तेज अविद्ध है अर्थात् अखण्डहै, यह वही स्वरूप है जो अनन्त संसार की रचना करने वाला है अर्थात् यही निराकार है और यही साकार भी । अनन्तानन्त प्राण, बुद्धि, इन्द्रियों का आधार भी यही है, श्री शंकराचार्य जी के ‘गोविन्दाष्टक’ से भी यही स्पष्ट होता है –

सत्यं ज्ञानमनन्तं नित्यमनाकाशं परमाकाशम्
गोष्ठप्राङ्गणरिङ्गणलोलमनायासं परमायासम् ।
मायाकल्पितनानाकार मनाकारं भुवनाकारम्
क्ष्माया नाथमनाथं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥

अनन्त आकार भी वही है और निराकार भी वही है । भुवनाकार अर्थात् अनन्त संसार के रूप में भी वही है, वेदों ने भी इसकी पुष्टि की –

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स श्रृणोत्यकर्ण: ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद् ३/१९)

वह बिना चरण के चलता है, बिना हाथ के पकड़ता है, अचक्षु होकर देखता है और अकर्ण होकर भी सुनता है ।

भागवत वक्त्री : पराम्बा लक्ष्मी –

भगवान् नारायण कथा कहते हैं तो एक मास कथा चलती है एवं लक्ष्मी जी कहें तो पूरे दो मास कथा चलती है । इससे अधिक पुष्टि का और क्या प्रमाण हो सकता है?

यदा विष्णुः स्वयं वक्ता लक्ष्मीश्च श्रवणे रता ।
तदा भागवतश्रावो मासेनैव पुनः पुनः ॥
यदा लक्ष्मीः स्वयं वक्त्री विष्णुश्च श्रवणे रतः ।
मासद्वयं रसास्वादस्तदातीव सुशोभते ॥

(स्कन्दपुराणान्तर्गत भा.महा.३/३५, ३६)

जहाँ तक स्त्री की दैहिक अपावनता के कारण उसे वैदिक व स्मार्त धर्मों से बहिष्कृत किया गया है, ऋतुकाल में वह वैदिक कार्यों को करने के योग्य नहीं है किन्तु ध्यान रहे स्त्री धर्म की यह अपावनता तो स्वयं भगवती के शरीर में भी देखी गयी है ।

जिस समय शिव से परित्यक्त भगवती सती ने प्राणत्याग किया और उस निष्प्राण देह लेकर विरही शिव नृत्य करने लगे, उस समय जहाँ-जहाँ भगवती के देह-खण्ड गिरे, वे स्थान महातीर्थ और मुक्तिक्षेत्र के रूप में विख्यात हुए ।

ये सभी शक्ति स्थल आज भी सिद्धपीठ के रूप में हैं; जैसे अलोपी बाग, इलाहाबाद शक्तिपीठ में हाथ की उँगली गिरी, जहाँ वे ललिता शक्ति के रूप में हैं । ज्वालामुखी में जिह्वा गिरी, वहाँ देवी सिद्धिदा के रूप में हैं । कश्मीर में कण्ठ गिरा, जहाँ वे महामाया के रूप में हैं । उज्जयनी में कुहनी गिरी, जहाँ मंगल चण्डिका के रूप में हैं एवं कामगिरि में योनिभाग गिरा जहाँ वे कामाख्या के रूप में हैं ।

श्री महादेव उवाच –

पीठानि चैकपञ्चाशदभवन्मुनिपुङ्गव
अङ्गप्रत्यङ्गपातेन छम्यासला महीतले ।
तेषु श्रेष्ठतमः पीठः कामरूपी महामते ॥

(देवी पुराण शक्तिपीठांक-१२/२९, ३०)

श्री महादेव जी ने कहा – इस प्रकार सती के अङ्ग-प्रत्यङ्ग गिरने से इक्यावन शक्तिपीठ हुए जिनमें कामरूप (कामाख्या) सर्वश्रेष्ठ शक्तिपीठ है ।

अङ्गेषु भगवत्यास्तु योनिः श्रेष्ठतमा याः ।
योनिरूपा हि सा देवी सर्वासु स्त्रीष्ववस्थिता ॥

(देवी पुराण शक्तिपीठांक-७७/१९)

भगवती के सभी अंगों में योनि-अंग सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वो देवी योनिरूप में सभी स्त्रियों में अवस्थित हैं ।

तत्र गत्वा महापीठे स्नात्वा लोहित्यवारिणी ॥
(देवी पुराण शक्तिपीठांक-१२/३१)

आज भी त्रिदिवसीय धर्म में कामरूप (कामाख्या) के जल में कुछ लालिमा आ जाती है, उस समय वहाँ स्नान करने से ब्रह्महत्या के पाप से भी सद्यः मुक्ति हो जाती है ।

न केवल भगवती, श्रीकृष्णकी रानियों में भी सामान्य स्त्रियों के धर्म देखे गये ।

स्त्री कौन?

स्त्यै शब्दसंघातयोः
(धातुपाठ १/९३५ पाणिनी व्याकरण)

शब्द तथा संघात के अर्थ में ‘स्त्यै’ धातु का प्रयोग होता है ।

जहाँ रज व वीर्य का संघात हो, वह स्त्री है, यह नियम मानव स्त्री, देव स्त्री सबमें घटित होता है ।

देवस्त्रियों में देखें –

चन्द्रमा ने गुरूपत्नी से पुत्रोत्पन्न किया तब ब्रह्मा जी ने कहा – यह ब्रहस्पति का क्षेत्रज व चन्द्रमा का औरस पुत्र है ।

(स्त्यै+डट्+ङीष् = स्त्री)

इसी के अनुसार भाष्यकार ‘स्त्री’ शब्द का अर्थ लिखते हैं –

‘अधिकरण साधना लोके स्त्री स्तायत्यस्यां गर्भ इति’

अधिकरण साधना स्त्री है, जिसमें गर्भ संघात रूप को प्राप्त हो, उसे ‘स्त्री’ कहते हैं ।

भगवान् पतंजलि के मत से –

‘स्त्यायति अस्यां गर्भ इति स्त्री’

स्त्री इसलिए कहते हैं क्योंकि उसमें ही गर्भ की स्थिति होती है ।

स्त्री का अवयव – संघटन ही ऐसा है रजोदर्शन, गर्भधारण आदि के कारण उसे सहज अपावन कहा गया फिर स्त्री के रूप में वह चाहे भगवती हो अथवा श्रीकृष्णकी रानी । श्रीकृष्णके द्वारका-प्रस्थान पर हस्तिनापुर की नारियों ने परस्पर कहा –

एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
(भा. १/१०/३०)

हे सखि! ये रानी-पटरानी धन्य हैं इन्होंने श्रीकृष्ण को प्राप्त करके अपने स्त्रीत्व को धन्य कर दिया । जो स्त्री शरीर अपास्तपेशल अर्थात् स्वतन्त्रता रहित है, निरस्तशौचं अर्थात् पवित्रता रहित है ।

जब श्रीकृष्ण पत्नी भी सामान्य स्त्रियों की भाँति स्वतन्त्रता एवं पवित्रता से रहित हैं तब तो शबरी का स्वयं के लिए यह कहना उचित ही था –

अधम ते अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥

(रा.च.मा.अरण्य. ३५)

किन्तु ध्यान रहे, “सहज अपावनि नारि” को वह पवित्रता प्राप्त हुई जो स्वयं भगवान् को भी प्राप्त न हो सकी ।

अधिक बढ़ावत आपते, जन महिमा रघुबीर ।
शबरी पद रज परसते शुद्ध भयो सरनीर ॥

जो सर स्वयं श्रीराम के चरण स्पर्श से भी शुद्ध न हो सका, वही शबरी के चरण स्पर्श से शुद्ध हो गया ।

कहाँ गई स्त्री धर्म की अपावनता?
यही तो गोपियों के विषय में भी है –

श्री उद्धव जी ने कहा –

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः ।

(भा. १०/४७/५९)

कहाँ ये वनचरी, व्यभिचार से दूषित स्त्री और कहाँ इनका श्रीकृष्ण में अनन्य प्रेम और आगे उन्हीं ब्रजस्त्रियों की चरणरज-वन्दना करते हैं ।

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः ।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥

(भा. १०/४७/६३)

जदपि यशोदा नन्द अरु ग्वाल बाल सब धन्य ।
पै या रस को पाय के, गोपी भईं अनन्य ॥

(रसखान)

गोपियाँ कहती हैं –

का स्त्र्यङ्ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन
सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं
यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥

(भा. १०/२९/४०)

संसार में ऐसी कौन स्त्री है जो श्रीकृष्ण की नरलीला से मोहित न हुई हो फिर ये देवियाँ ब्रजस्त्रियों की भला क्या समानता करेंगी?

नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः
स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्याः ।
रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ-
लब्धाशिषां य उदगाद् व्रजवल्लवीनाम् ॥

(भा. १०/४७/६०)

श्रीकृष्ण ने महारास लीला में ब्रजवल्लवियों के गले में बाँह डालकर उन्हें जो प्रेमदान किया वह तो नित्य वाम वक्ष-वासिनी लक्ष्मी को भी प्राप्त नहीं हुआ फिर पद्मगन्धा देवाङ्गनाओं को व अन्य स्त्रियों को क्या प्राप्त होगा?

निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि यन्मुनय
उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।
स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो
वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्‌घ्रिसरोजसुधाः ॥
(भा. १०/८७/२३)

बड़े-बड़े योगीजन दृढ़ योगाभ्यास द्वारा इस सुख-प्राप्ति का यत्न करते हैं, श्रुतियाँ भी इसके लिए लालायित रहती हैं, यही नहीं, नरलीला का आनन्द लेने को सिद्धियाँ भी तरसती हैं ।

हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई ।
भूप पहुनई करन पठाई ॥

(रा.च.मा.बाल. ३०६)

सीता जी ने विवाह अवसर पर समस्त सिद्धियों को बुलाया, उन्हें यह लीलानन्द का अवसर दिया एवं महाराज दशरथ के स्वागत हेतु भेजा ।

सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना ।
नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥

(रा.च.मा.बाल. ३०९)

सभी अप्सराएं भी आईं, नृत्य-गान के लिए ।

सुतन्ह समेत दसरथहि देखी ।
मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥

(रा.च.मा.बाल. ३०९)

पुरवासियों को तो नररूप के दर्शन में ‘बिसेषी’ अर्थात् ब्रह्मानन्द से भी बढ़कर आनन्द की प्राप्ति हो रही है ।

यह दुर्लभ आनन्द ब्रजस्त्रियों को तो बिना किसी योगाभ्यास के प्राप्त हो गया तभी तो उद्धव जैसे ब्रह्मज्ञानी त्रिलोक पावनी भगवद्कथा का गान करने वाली उन ब्रजस्त्रियों की चरण-रज वन्दना कर रहे हैं और २-४ श्लोक रट लेने वाले, पढ़े-पढ़ाये तोता (जिनका वैष्णव धर्म पर कोई चिन्तन नहीं है) स्त्रियों को कथा-कीर्तन का अनधिकारी घोषित करते हैं । जबकि भागवत प्रणयन हुआ ही स्त्रियों के लिए ।

स्त्रियों के लिए हुआ भागवत-प्रणयन

जब तक भागवत धर्म का निरूपण नहीं हुआ, व्यास जी को अपूर्णता का अनुभव होता रहा । सार्वभौम कल्याण का विचार जब तक नहीं किया जायेगा तब तक भगवान् भी है तो अपूर्णता रहेगी ।

वेदों के प्रणयन से तो मात्र द्विजाति का कल्याण ही सिद्ध हो रहा था ।

अतः विशेषतया स्त्री, शूद्रादि पर कृपा करने हेतु ही भागवत प्रणयन हुआ ।

स्त्रीशूद्रद्विजबंधूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥

(भा. १/४/२५)

स्त्री, शूद्रादि जो वेद के अधिकारी नहीं हैं, उनके कल्याणार्थ श्री वेदव्यास जी द्वारा इतिहास, पुराण की रचना हुई ।

इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥
(भा. १/४/२०)

इतिहास व पुराण पंचम वेद हैं जिनमें सबका अधिकार है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण है श्री रोमहर्षण जी, वेद-विभाजन के समय इतिहास व पुराण श्री रोमहर्षण जी को दिये, रोमहर्षण जी विलोमज हैं । स्मार्त दृष्टि से उन्हें अधिकार नहीं है ।

क्षत्रियात्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः ।
(मनु स्मृति)

स्मृति धर्म के अनुसार ब्राह्मण वर्ण की स्त्री व क्षत्रिय वर्ण के पुरुष से उत्पन्न पुत्र को सूत कहा गया है ।

सूत का कार्य है – सारथि बनकर रथ हाँकना । कथावाचन उसका कार्य नहीं किन्तु यहाँ सूत जी कथा कह रहे हैं ।

श्री सूत जी बोले –

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रंमहत्तमानामभिधानयोगः ॥

(भा. १/१८/१८)

आज भगवच्चरित्र गाकर मैं पवित्र हो गया ।

अतः स्त्री को श्रीमद्भागवत में सब प्रकार का अधिकार है ।

श्री सूरदास जी के शब्दों में –

कह्यौ शुक श्री भागवत-बिचार ।
जाँति-पाँति कोउ पूछत नाहीं, श्रीपति कैं दरबार ॥
श्री भागवत सुनै जो हित करि, तरै सो भव-जल पार ।
‘सूर’ सुमिरि सो रटि निसि-बासर, राम-नाम निज सार ॥

श्री मद्भागवत की ही तो आज्ञा है –

सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
यस्याः श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ॥

(भा.माहा. ३/२५)

सदा अर्थात् सर्वकाल व सर्वावस्था में भगवद् कथा सेवनीय है –

श्री उद्धव जी तो कहते हैं –

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः ।
नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि साक्षा-
च्छ्रेयस्तनोत्यगदराज इवोपयुक्तः ॥

(भा. १०/४७/५९)

कोई व्यभिचारिणी स्त्री भी है, यदि उसका श्री ठाकुर जी के प्रति भाव है तो वह भी सदा शुद्ध है ।

“ईश्वरप्रसादो महत्त्वे कारणं तस्य च न जातिराचारो ज्ञानं वा कारणं”
(श्रीधरस्वामीकृतभावार्थदीपिका)

जाति, आचरण, ज्ञान, कारण नहीं है, मात्र भजन ही कारण है । जैसे अभाव से अमृत पीने वाला भी तो अमर हो जाता है ।

‘कोटिकामारूढभावविशेषः’
(श्रीमत्सनातनगोस्वामिकृतबृहत्तोषिणी)

जहाँ करोड़ों काम एक साथ उत्पन्न होते हैं, वह विशेष भाव है । जिसे व्यभिचार कहा गया ।

जो भाव लज्जा, संकोच, मर्यादा को छोड़ दे, वह व्यभिचार है ।

इन वनचरियों को न लज्जा है, न मर्यादा ही, तो भी भावशक्ति से पूज्य हो गईं ।

‘किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ॥’
(भा. १०/४७/५८)

इस भाव के बिना अनेक बार ब्रह्मा बनना भी व्यर्थ है ।

भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥
(भा. ११/१४/२१)

भाव वह शक्ति है जिससे चाण्डाल भी अनुक्षण पवित्र हो जाता है ।

इसी प्रकार नीलगिरि पर काक जी वक्ता हैं व गरुड़ जी श्रोता ।

गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी॥
(रा.च.मा.उत्तर काण्ड-५५)

इससे सिद्ध होता है कि जिसमें विशुद्ध भक्ति है, वही श्रेष्ठ है ।

स्त्री, शूद्रादि के कल्याणार्थ पूर्व में जब तक कोई व्यवस्था न थी तब तक व्यास जी का मन असन्तोष व अपूर्णता का अनुभव करता रहा । श्रीमद्भागवत का प्रणयन कर व्यास जी ने इस न्यूनता को पूर्ण किया ।

विद्याप्रकाशो विप्राणां राज्ञां शत्रुजयो विशाम् ।
धनं स्वास्थ्यं च शूद्राणां श्रीमद् भागवताद् भवेत् ॥
योषितामपरेषां च सर्ववाञ्छितपूरणम् ।
अतो भागवतं नित्यं को न सेवेत भाग्यवान् ॥
(स्कन्दपुराणान्तर्गत भा. माहा. ३/१६, १७)

श्रीमद्भागवत सेवन से ब्राह्मणों को बोध, क्षत्रियों को शत्रु जय, वैश्य को धन प्राप्ति व शूद्रों को आरोग्य प्राप्त होता है । स्त्री, अन्त्यज व अन्य सबके मनोरथ पूर्ण होते हैं अतः श्रीमद्भागवत नित्य सेवनीय है ।

वेदादि में सबका अधिकार न होने से दयामय श्री व्यास जी ने सबके लिए सर्वदा सेवनीय श्रीमद्भागवत का प्रणयन किया ।

सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
(भा. माहा. ३/२५)

यही है श्री व्यास जी की सर्वभूत दया ।

ब्रह्मा जी के वचन –

नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारैराराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥
(भा. ३/९/१२)

भगवान् सेवा-पूजा से वैसे प्रसन्न नहीं होते, जैसे सर्वभूतदया (प्राणी मात्र पर दया से प्रसन्न होते हैं ।) फिर स्त्री-शूद्र तो विशेष दया के पात्र हैं ।

दूरे हरिकथाः केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥
(भा. ११/५/४)

दूरे हरिकथाः केचिद्दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।

स्त्रियः शूद्रादयो ये च तेषां बोधो यतो भवेत् ॥
(भा.माहा.६/६)

प्रारम्भ में सप्ताह यज्ञ की विधि बताते हुए भी, स्त्री, शूद्र भगवद् कथा-कीर्तन से दूर न पड़ जाएं, विशेष प्रबन्ध की आज्ञा है । यही नहीं दयामय व्यास जी ने स्त्रियों पर विशेष कृपा करते हुए उनके असाध्य रोगों का उपचार भी श्रीमद्भागवत में श्रीमद्भागवत ही कहा है ।

अपुष्पा काकवन्ध्या च वन्ध्या या च मृतार्भका ।
स्रवद् गर्भा च या नारी तया श्राव्या प्रयत्‍नतः ॥
(भा.माहा. ६/५२)

जिन्हें रजोदर्शन न हो, एक ही सन्तान हुई हो, वन्ध्या हो, जिसकी सन्तान जन्म लेकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भपात हो जाता हो, वह यत्नपूर्वक अवश्य यह कथा श्रवण करे ।

भागवत धर्म वैष्णव धर्म है, इसमें स्मार्त विधि-निषेधों को घटित नहीं करना चाहिए ।

भागवत धर्म का विधि-निषेध तो मात्र यही है –

राम भज राम भज राम भज बावरे ।
राम को बिसारिवो निषेध सरताज रे ॥
भागवत धर्म साध्य धर्म है और अन्य सब साधन धर्म हैं ।
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥
(रा.च.मा.अरण्य. ६)

अतः भागवत धर्म में स्मृति धर्मों का विधि-निषेध घटित नहीं करना चाहिए ।

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति ॥
(भा. १/२/६)

श्री भगवान् में अहैतुकी व अप्रतिहता भक्ति हो जाना ही भागवत धर्म है और यह भागवत धर्म ही परम धर्म है, अन्य सब अपर धर्म हैं ।

भागवत धर्म को छोड़कर मात्र त्रैकालिक स्नान, संध्योपासन …………..आदि-आदि ही करते रहे तब तो सब दण्ड बैठक का परिश्रम मात्र ही रहा ।

भागवत धर्म तो इतना व्यापक है –

पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥
(रा.च.मा.उत्तर. ८७)

नपुंसक भी है, जो वैदिक धर्मों से पूर्णतः बहिष्कृत है, भागवत धर्म में उसका भी अधिकार है ।

स्त्रियों में भी अमर्यादित भोग है जिनका, उन वेश्याओं को भगवान् ने अपने हृदय में स्थान दिया ।

गनिका अरु कंदरप ते जगमहँ अघ न करत उबरयो ।
तिनको चरित पवित्र जानी हरि निज हृदि-भवन धरयो ॥
केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि परयो ।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपा को जोवत पंथ खरयो ॥
(तुलसी विनय पत्रिका-२३९)

गणिकाएं – जीवन्ती, सुमध्या, कान्हूपात्रा, चिन्तामणि, रूपमती, रामजनी, पिंगलादि इसका प्रमाण हैं  ।

श्री भक्तमाल ग्रन्थ में वर्णित –

दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए श्री स्वामी रामानन्दाचार्य जी का दर्शन कर एक वारमुखी का मन पवित्र हुआ एवं अपने सम्पूर्ण जीवन की कमाई को स्वामी जी के चरणों में अर्पित करने पहुँची । श्री स्वामी रामानन्दाचार्य जी ने उस धन को स्वयं न स्वीकार करते हुए श्री रंगनाथ भगवान् का मुकुट बनाने की आज्ञा दी । तदनुसार मणिमय मुकुट लेकर जब वह पहुँची तो स्वामी जी ने उसे अपने ही हाथों से श्री रंगनाथ जी को धारण कराने की आज्ञा दी किन्तु विकर्मों का विपाक ही था कि मन्दिर देहरी पर चरण रखते ही वह रजोधर्म हो जाने से मुकुट धारण कराने के योग्य न रही, इस पर जब वह लौटने लगी तो भगवान् ने पुजारियों के हाथ से मुकुट धारण न किया, यह कहकर कि हम तो उसके ही हाथ से धारण करेंगे ।

तब तो पुजारियों ने कहा – प्रभो! यह तो बहुत बड़ी अनीति होगी । एक तो वैश्या, उसमें भी रजस्वला फिर वह आपका स्पर्श करे । श्री रंगनाथ भगवान् ने किसी की भी ओर ध्यान न देते हुए मुकुट धारण करने को उस वैश्या के सम्मुख अपना मस्तक झुका दिया । इससे यह स्पष्ट होता है कि भागवत धर्म में कहीं भी आचार-विचार की अनिवार्यता नहीं है । कुंभनदास जी का पुत्र समाप्त हुआ तो उन्हें मरणाशौच से भगवद्दर्शन न होने का बहुत विषाद हुआ । विषाद में कुम्भनदास जी मूर्च्छित हो गये तब श्री गुसांई जी ने कान में कहा – कुम्भनदास जी! भक्त को भला कैसा मरणाशौच? आपके दर्शन करके तो अन्यों का सूतक भी समाप्त हो जाता है अतः चिन्ता न करें, कल मन्दिर आवेंगे तो श्री ठाकुर जी के दर्शन पावेंगे ।

२५२ वैष्णव वार्तानुसार –

यमुना किनारे रावल के समीप गोपालपुर में श्री गुसांईजी के कृपापात्र मेहा धीमर रहते थे ।

एक समय मेहा की स्त्री ने पुत्र को जन्म दिया । उस समय मेहा स्वयं किसी आवश्यक कार्य से बाहर गये हुए थे । पुत्र के जन्म से अशौच हो जाने पर स्त्री को भगवद् सेवा छूटने का अपार कष्ट हुआ ।

हाय! इस दुष्ट पुत्र के होने से मेरी भगवद् सेवा छूट गयी – कहकर रुदन करने लगी । तब स्वयं श्री ठाकुर जी ने मेहाधीमर की स्त्री को आज्ञा दी –

‘रो मत, स्नान करके मेरी सेवा कर ।’ इस पर जब वह स्नान करके सेवा करने लगी तब तक मेहा आ गये, अशौचावस्था में भगवद् सेवा करते देख रोका तो स्त्री ने कहा – स्वयं भगवान् ने मुझे सेवा की आज्ञा की है, सुनकर मेहा अत्यन्त प्रसन्न हुए ।

८४ वैष्णव वार्तानुसार –

इसी प्रकार श्रीमद् वल्लभाचार्य महाप्रभु की कृपापात्रा दामोदर दास वैष्णव की माँ वीरबाई को जब पुत्रोत्पन्न हुआ तो भगवत्सेवा छूट जाने का अपार कष्ट हुआ । दिन चढ़ आया किन्तु किसी ने ठाकुर जी को जगाया नहीं, तब वो रोने लगीं – यह पापी पुत्र कहाँ से हो गया, मेरी ठाकुर सेवा छूट गयी । उन्हें रुदन करते हुए देखकर, शय्या से ठाकुर जी बोले – वीरबाई! रोने की आवश्यकता नहीं, आकर मुझे जगाओ ।

किन्तु मैं तो पुत्र जन्म के अशौच में पड़ी हूँ, आपका स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ । वीरबाई ने कहा ।

तब स्वयं भगवान् ने आज्ञा की – शरीर में गोबर लगाकर स्नान करके तुम ही मुझे जगाओ । मैं अन्य किसी से सेवा नहीं कराऊँगा । यह मेरी आज्ञा है अतः कोई अपराध नहीं लगेगा । तब वीरबाई ने ऐसा ही किया । इस प्रकार घर में अन्य परिवारी जनों के रहते सूतक, पिंडरू व ऋतुकाल में भी वीरबाई से अपनी सेवा कराते ।

श्री मद्भागवत जी का कथन है –

सौभर्युतङ्कशिबिदेवलपिप्पलाद सारस्वतोद्धवपराशरभूरिषेणाः ।
येऽन्ये विभीषणहनूमदुपेन्द्रदत्त पार्थार्ष्टिषेणविदुरश्रुतदेव वर्याः ॥
ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां स्त्रीशूद्रहूणशबरा अपि पापजीवाः ।
यद्यद्‍भुतक्रमपरायणशीलशिक्षास्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ॥
(भा. २/७/४५, ४६)

सौभरि, उत्तंक, शिवि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, विभीषण, हनुमान, शुकदेव, अर्जुन, विदुर व अन्य जितने भी श्रेष्ठ पुरुष (धर्माचार्य) हैं, यही नहीं जो भगवद् परायण स्त्री, शूद्र, हूण, शबर (भीलादि) व अन्य पापात्मा हैं, पशु-पक्षी की योनि में भी हैं, वे सब दैवी माया को जान जाते हैं व पार कर लेते हैं ।

फिर अयोनिजा द्रौपदी को भी तो रजोदर्शन हुआ और उस समय जब वह रजस्वला थी, भगवान् अधोअंग की साड़ी बन गये ।

सा कृष्णमाया नमिताङ्गयष्टिः
शनैरुवाचाथ रजस्वलास्मि ।
एकं च वासो मम मन्दबुद्धे
सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य ॥
(महाभारत द्यूतपर्व ७८/३२)

दुःशासन के खींचने पर द्रौपदी का शरीर झुक गया और वह धीरे से बोली –

रे मन्दबुद्धि दुष्टात्मा! इस समय मैं रजस्वला, एक वस्त्रा हूँ, सभा में जाने योग्य नहीं हूँ ।

शास्त्र का कथन है –

प्रथमे चाण्डालिनी ज्ञेया द्वितीये रजका स्मृता ।
तृतीयस्मिन्दिने शूद्रा स्नात्वा शुद्धा ततो भवेत् ॥

रजोदर्शन होने पर पहले दिन स्त्री चाण्डालिनी के समान, दूसरे दिन धोबिन व तीसरे दिन शूद्र के समान अपवित्र रहती है अनन्तर स्नान करके शुद्ध होती है ।

किन्तु भागवत धर्म में –
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥

(भा. ३/३३/७)

एक-दो दिन के लिए चाण्डालत्व को प्राप्त होने वाला नहीं, जो जन्मजात चाण्डाल है, वह भी नाम श्रवण-कीर्तन से श्रेष्ठ हो जाता है । उसे फिर अलग से तपस्या, यज्ञ, तीर्थस्नान, सदाचार व शुभाचरण की आवश्यकता नहीं रह जाती है और श्री प्रह्लाद जी कह रहे हैं –

जो ब्राह्मण धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि व योग – इन १२ गुणों से सम्पन्न है, वह भगवान् को प्रसन्न नहीं कर सकता है । गजराज में कोई गुण न था, मात्र भक्ति से भगवान् सन्तुष्ट हो गये ।

मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः ।
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय ॥
विप्राद् द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थप्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥
(भा. ७/९/९, १०)

इन द्वादश गुणों से हीन होने पर भी जिसने मन, वचन, कर्म, धन व प्राण को भगवान् के चरणों में समर्पित कर रखा है, वह चाण्डाल भी भगवत विमुख ब्राह्मण से श्रेष्ठ है क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने सहित सम्पूर्ण कुल को पवित्र कर देगा और वह गुरुत्वाभिमानी ब्राह्मण स्वयं को भी पवित्र नहीं कर सकेगा ।

अर्थात् बाह्य शौचाशौच का विचार करने वाला ब्राह्मण स्वयं को भी पवित्र नहीं कर सकता है एवं भगवद् समर्पण से जो आन्तरिक पवित्रता को प्राप्त कर चुका है, वह चाण्डाल भी सम्पूर्ण कुल को पवित्र कर देता है ।

श्री शुकदेव जी के वचन –

तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मन्त्रविदः सुमङ्गलाः ।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥
(भा. २/४/१७)

उन प्रभु को प्रणाम है, जिनमें समर्पण किये बिना बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी व मन्त्रवेत्ताओं का भी कल्याण नहीं है ।

स्वयं भगवान् भी जब मर्त्यलीला के उपयुक्त देह धारण करते हैं अर्थात् नरावतार लेते हैं तो उनमें सामान्य मनुष्य जैसे धर्म दिखायी पड़ते हैं । इसी प्रकार अवतार काल में महाशक्तियों में भी सामान्य स्त्री-विकार दिखाई देते हैं जैसे श्रीकृष्ण की रानी-पटरानियों में, अयोनिजा द्रौपदी में व स्वयं भगवती सती के देह में भी । इसका आशय यह तो नहीं कि इनमें अभावोत्पन्न कर लिया जाये ।

यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोगमायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥
(भा. ३/२/१२)

श्री उद्धव जी के वचन –

योगमाया का बल दिखाते हुए श्री भगवान् ने मर्त्यलीला के उपयुक्त देह धारण किया, इसके सौन्दर्य व सौभाग्य को देखकर वे स्वयं भी मोहित हो गये ।

मर्त्यावतार में प्राकृत धर्म –

रामावतार में –

सकल सौच करि जाइ नहाए ।नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥
(रा.च.मा.बाल. २२७)

सकल अर्थात् बाह्याभ्यन्तर सभी प्रकार की पवित्रता के पश्चात् श्रीरामने स्नान किया ।

पुनः

सकल सौच करि राम नहावा । सुचि सुजान बट छीर मगावा ॥
(रा.च.मा.अयोध्या. ९४)

इसी प्रकार कृष्णावतार में –

एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौ
स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथाऽऽस्ते ।
(भा. १०/८/३१)

गोपियों ने कहा- कन्हैया इस प्रकार की ढिठाई करता है कि हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घर में मेहनादीनि अर्थात् मूत्रादि त्याग देता है ।

टीकाकारों ने और स्पष्ट करते हुए कहा –

‘वास्तौ देवपूजार्थमामृष्टलिप्तभूमौ मेहनादीनि
मूत्रपुरीषोत्सर्गादीनि धार्ष्ट्यान्युपद्रवान् ।’
(श्रीमद्विश्वनाथचक्रवर्तिकृतसारार्थदर्शिनी)
‘उपविश्य च वास्तौ देहल्यादौ मेहनादीनि पुरीषोत्सर्जनादीनि करोति ।’
(श्रीमद्विजयध्वजतीर्थकृतपदरत्नावली)

प्रायः सभी आचार्य महानुभावों ने यही अर्थ ग्रहण किया है ।

“कन्हैया हमारे स्वच्छ घर में मल-मूत्र त्याग देता है ।”

आप कहेंगे कि इस वपु में मल-मूत्र कैसे सम्भवहै?

तुम जो कहहु करहु सब सांचा । स काछिअ तस चाहिअ नाचा ॥
(रा.च.मा.अयो. १२७)

वे जो कुछ कहते हैं, करते हैं, वह सब सत्य है और फिर स्वांग के अनुसार नृत्य भी तो आवश्यक है । मर्त्यलीला में मर्त्योचित व्यवहार ही उचित है ।

जासु नाम सुमिरत एक बारा ।
उतरहिं नर भवसिन्धु अपारा ॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा ।
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥
(रा.च.मा.अयो. १०१)

जिसके एक बार नाम स्मरण मात्र से मनुष्य अपार भवसागर पार हो जाता है, वह स्वयं नदी पार होने के लिए नाव की प्रतीक्षा में है ।

कैसी मानवीयता ।

मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ ।
सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ ॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू ।
तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू ॥
(रा.च.मा.अयोध्या. ८७ )

स्नान करने पर मार्ग की श्रान्ति दूर हो गई एवं गंगा का पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया ।

जिनके स्मरण मात्र से जन्म-मरण का श्रम दूर हो जाता है, उनका श्रमित होना यही तो नररूप के उपयुक्त स्वांग है ।

मानवीय स्वांग का हेतु?

सुद्ध सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु ।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु ॥
(रा.च.मा.अयोध्या. ८७ )

प्राणीमात्र का संसार सन्तरण ही इन लीलाओं का एकमात्र प्रयोजन है ।

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
(भा. १/९/३८)

भीष्म के तीक्ष्ण बाणों से श्रीकृष्ण का कवच टूट गया एवं सम्पूर्ण शरीर रक्त से लथपथ हो गया ।

यह रक्त मानवीय विकार ही है ।

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद्दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥
(भा. १/१२/७)

माता उत्तरा के गर्भ जैसे घृणित, निन्दित उस मल-मूत्र के कूप में भी भगवान् पहुँच गये और परीक्षित को उस दिव्य स्वरूप का दर्शन हुआ ।

तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव ।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानामरूपिणः ॥
(भा. ३/२४/३१)

यद्यपि आप अरूपी अर्थात् प्राकृत रूप से रहित हैं ।

अलौकिक रूप वाले होते हुए भी आपके जो-जो स्वरूप भक्तों को प्रिय लगते हैं, आप उन्हें ही धारण करते हैं क्योंकि आपको स्वयं भी भक्तों को प्रिय लगने वाले रूप ही प्रिय हैं ।

श्री मद्भागवत में यही कहा गया –

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः ।
भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥
(भा. १०/३३/३७)

भगवान् ने तादृशी लीलाएं कीं क्योंकि जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति विकर्मों में होने से उन लीलाओं को वह सहज ही समझ सकता है व उनके कथन-श्रवण से मत्परायण हो सकता है ।

श्री ब्रह्मा जी के वचन –

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥
(भा. ३/९/१७)

हे भगवन्! प्रायः संसार में लोग स्वधर्म पालन से उदासीन होकर विकर्मों में प्रवृत्त होते देखे जा रहे हैं और काल इन प्रमादियों की जीवन आशा को निरन्तर खा रहा है ।

“परदाराभिमर्शन”
(भा. १०/३३/२८)

धर्म विरुद्ध आचरण होते हुए भी विकर्म नहीं बना क्योंकि यह इन्द्रिय प्रीति अथवा इन्द्रिय तृप्ति के लिए होने वाला कर्म नहीं था ।

नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।
न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ॥
(भा. ५/५/४)

इन्द्रिय प्रीत्यर्थ कर्म विकर्म है फिर ये तो आत्माराम, आप्तकाम ठहरे, इन्हें किसी से रमण और विहार की क्या इच्छा होगी? यह सब तो उनकी अनुग्रहकातरता (कृपा करने की विकलता) है ।

सत्याऽऽशिषो हि भगवंस्तव पादपद्म-
माशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः ।
अप्येवमर्य भगवान् परिपाति दीनान्
वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान् ॥
(भा. ४/९/१७)

जिस प्रकार अलब्याई गाय अपने सद्यःजात शिशु को दुग्ध पिलाकर पोषण व सिंह-व्याघ्रादि से रक्षण करती है, हे प्रभो! उसी प्रकार आप भी अपने भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण व संसार भय को नष्ट करते हुए उन पर कृपा करने के लिए व्याकुल रहते हैं ।

वाश्रा (अलब्याई गाय) तो मुँह से चाटकर ही अपने स्तनन्धय वत्स के मलों को दूर करती है किन्तु अनुग्रहकातर भगवान् का तो अंग-अंग कृपामय है ।

‘तुलसी परतीति एक प्रभु मूरति कृपामयी है ।’
(तुलसी विनय पत्रिका)

प्रभु का प्रत्येक श्रीअंग कृपापूर्ण है ।

अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि ।
(भा.१०/१४/२)

प्रभु की कृपा से ही उनके अनुग्रहमय-विग्रह का दर्शन सम्भव है । सम्पूर्ण श्रीविग्रह ही अनुग्रह का साक्षात् स्वरूप है ।
करुणा सदन वदन अवलोकत कोटि मदन मद हारी ।
(श्रीरघुराज सिंहजी)

अनुग्रह स्वरूप जटायें –

कछुक दूर आगे चलि रघुपति बिकल बिहंग निहार्यौ ।
कृपानिधान जटायु अंग रज निज जटानि सो झार्यो ॥
(श्रीरघुराज सिंहजी)

अनुग्रहमय नेत्र –

कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद ।
(रा.च.मा.लंका १०३)

कृपापरिपूरन तरुन अरुन राजीव बिलोचन
(गीतावली)

अनुग्रहमय भृकुटि –

भ्रू सुन्दर करुनारस पूरन
(गीतावली)

अनुग्रह वानी –

मागु मागु बरु भै नभ बानी ।
परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई ।
श्रवन रंध्र होइ उर जब आई ॥
(रा.च.मा.बाल १४५)

अनुग्रहस्वरूप हृदय –

हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा ।
सूचत किरन मनोहर हासा ॥
(रा.च.मा.बाल १९८)

अनुग्रहमय कर कमल –

कर सरोज सिर परसेउ कृपासिन्धु रधुबीर ॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥
(रा.च.मा.अरण्य ३०)

अनुग्रहमय चरण –

स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन् भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥
(भा. १०/२/३१)

देवाताओं ने कहा – हे भगवन्! भक्तजन स्वयं तो भयानक संसार सागर से पार हो ही जाते हैं, अनेकों के सन्तरण के लिए आपके चरण कमलों की नौका को स्थापित कर जाते हैं । उन भक्तों के लिए आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं ।

करुनासिन्धु मुरारि, करुनाई को कहि सकै ।
जाको वेद पुकारि, नेति नेति भाखत रहै ॥
(श्री रघुराजसिंह जी)

जिस प्रकार सघन घटायें बरसने के लिए बंजर और उपजाऊ भूमि का विचार नहीं करती हैं, उसी प्रकार अहैतुकी कृपा कारक भगवान् की अनन्त कृपा-कादम्बिनी का निर्झर भक्त, अभक्त, पात्र, अपात्र का कुछ भी विचार न करते हुए सर्वत्र समान ही बरसता है ।

अनुग्रहपरवश होकर ही वे तादृशी क्रीडा करते हैं, जिसके लिए कहीं-कहीं आर्य वैदिक मर्यादाओं से भी उसका विरोध हो जाता है ।

कृपातिशयता ही तो थी भीष्म के लिए शस्त्र उठाने और वेदवाणी को मृषा करने में ।

जिन गोपाल मेरो पन राख्यो मेटि वेद की कान ।
सोई सूर सहाय हमारे निकट भये हैं आन ॥
(सूरदास जी)

भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥
(भा. १०/३३/३७)

तादृशी अर्थात् वैसी ही लीलाएं कीं जैसी हमारी प्रवृत्ति है, जिससे कृष्ण परायण होने में हमें कठिनाई का अनुभव न हो ।

चराचर जगत काम के वशीभूत है । सामान्य जनों की बात छोड़िये स्थिति यह है कि

पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव ।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने ॥
(भा.माहा. १/७५)

बड़े-बड़े पण्डितों को भोग के लिए भैंसा बनते देखा जाता है अतः प्रतीपाचरण भी किया भगवान् ने, जिसे सुनकर परीक्षित को मोह हो गया और पूछ बैठे –

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥
(भा. १०/३३/२८)

१६, १०८ रानियों के साथ भी इस प्रकार के विहार का वर्णन प्राप्त नहीं होता है । “परदाराभिमर्शन” जैसा गोपियों के साथ हुआ है अतएव उन्हें चौरजार शिखामणि कहा गया । ऐसा चोर और ऐसा जार पुरुष आज तक नहीं हुआ ।

कृष्णावतार से विषइयों का उद्धार भी हो जायेगा । विषयी भी इन लीलाओं को गायेंगे ।

भव सागर चह पार जो पावा ।
राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा ।
श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥
(रा.च.मा.उत्तर. ५३)

यह लीला चरित्र ही ऐसा है कि विषइयों को भी सुनने में अच्छा लगता है, कानों को सुख देता है ।

आज सिनेमा के कलाकार भी तो गाते हैं –

“यशोमति मैया से पूछे नन्दलाला…………”

स्त्रियों के लिए हुआ कृष्ण अवतार

ठीक है कहीं-कहीं हमारे शास्त्रों में स्त्री की बहुत निन्दा है । “स्त्री प्रत्यक्षा राक्षसी”

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥

(गी. ९/३२)

श्रीमद्गीताजी में स्त्री को पापयोनि कहा ।

श्रीमद्भागवत में स्त्रियों को अकरुणा, क्रूरा, दुर्मर्षा, अप्रिय साहसा कहा गया जो अपने अल्पस्वार्थ के लिए अपने पति और भाई तक का वध कर डालती हैं । रामचरितमानस में भी स्त्रियों के ८ अवगुण कहे गये ।

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं ।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया ।
भय अबिबेक असौच अदाया ॥
(रा.च.मा.लंका. १६)

और

स्त्रीशूद्रद्विजबंधूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥
(भा.१/४/२५)

सहज अपावन होने से श्री व्यास जी ने इन्हें वैदिक अधिकार से बहिष्कृत कर दिया, किन्तु इसका परिणाम शब्द ब्रह्म व परब्रह्म में निष्णात उन महापुरुष के मन में अशान्ति, असन्तोष, अपूर्णता बनी रही । करुणामय भगवान् की दृष्टि में स्त्री, शूद्र कोई भी हेय नहीं है ।

यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः ।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णितः ॥
(भा. १/५/९)

नारद जी ने कहा – व्यास जी! आपने धर्म-अर्थादि पुरुषार्थों का जैसा वर्णन किया वैसा श्रीकृष्ण-महिमा निरूपण नहीं किया ।

श्रीकृष्ण-महिमा में तो कोई भी हेय नहीं है, उसमें भी कृष्णावतार तो स्त्रियों के लिए ही हुआ है जो न रामावतार में हुआ, न महाप्रभु चैतन्य के रूप में ।

कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं
श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणविचित्रगीतम् ।
देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा
भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः ॥
(भा.१०/२१/१२)

आचार्यों ने इस पंक्ति का बहुत सुन्दर भाव स्पष्ट किया है ।

केवलं वनितानामेवोत्सवो यत्र वनं यौवनमिताः प्राप्ताः प्राप्तवत्यः वनं सञ्जातमिति वा इतच्‌प्रत्ययः न हि तत्र प्रविष्टः पुनरावर्त्तते यौवनमित्यत्रापि ‘यु’ मिश्रणार्थे ‘वन’ मिति तासामेवोत्सवो भवत्विति भगवता वेषः कृतः सर्वाभरणभूषिताः सर्वा एव वनिताः यथा वेषरसं पुरुषार्थमनुभवन्ति अनेनास्मिन्नुत्सवे यासामलङ्कारादिनोत्सवो न जातस्तासां वनितात्वं व्यर्थमेव यथा रण्डानां तत्रापि चारु मनोहरमन्तरप्यलङ्कारहेतुस्तत्र प्रेमज्ञानादिकमलङ्कारा बहिरिवान्तरपि रसानुभवश्च अनेनाप्सरसां भगवदर्थागमने सर्वोप्युपाय उक्तोनुभावकं ततो विलम्बेन प्रस्थापकमाह-श्रुत्वा चेति ।

(श्रीमद्वल्लभाचार्य्यकृतसुबोधिनी)

श्रीकृष्ण का रूप व शील वनिताओं (युवती स्त्रियों) के लिए ही उत्सव रूप है ।

चूँकि रामावतार में एक पत्नी व्रत धर्म में बंधे होने से सभी स्त्रियाँ उस परम सुख से वंचित रहीं और श्रीमन्‌ चैतन्य महाप्रभु के रूप में तो बहुत ही कठोर मर्यादा की स्थापना हुई । श्रीमन्‌ चैतन्य महाप्रभु स्त्री-दर्शन तो दूर स्त्री शब्द भी मुख से न कहकर प्रकृति कहते थे, इसके विपरीत श्रीमद्‌वल्लभाचार्य महाप्रभु का चरित्र है । स्वयं भगवान् ने आचार्य चरण को विवाहाज्ञा दी और गोसाईं विट्ठलनाथजी के रूप में स्वयं भगवान् आये और उधर श्रीमन्‌ चैतन्य महाप्रभु भी भगवान् हैं और इधर गोसाईं विट्ठलनाथजी के रूप में भी स्वयं भगवान् हैं । चैतन्य महाप्रभु के रूप में स्त्री-त्याग की मर्यादा एवं पुष्टि मार्ग में स्वयं भगवान् के द्वारा स्त्री-ग्रहण की आज्ञा ।

बहुधा वैराग्य के आडम्बर में लोग कहते हैं हम स्त्री दर्शन नहीं करते, हम स्त्री मुख से कथा नहीं सुनते………..आदि आदि ।

फिर उदाहरण भी देते हैं – श्रीमच्चैतन्य महाप्रभु ने भी तो छोटे हरिदास के प्रति वृद्धा माधवी देवी से बात कर लेने पर कितनी कठोर मर्यादा स्थापित की किन्तु क्या भूल गये श्रीरायरामानन्द जी देव दासियों (ये वे अविवाहित कन्याएं होती थीं जिन्हें बाल्यकाल से ही विषय वातावरण से दूर रखकर नृत्य-गान द्वारा भगवान् को रिझाने की शिक्षा दी जाती थी) को निभृत उद्यान में ले जाकर उनके प्रत्येक अंग पर अपने हाथ से हरिद्रा, तैलादि से मर्दन करते थे, यही नहीं अपने ही हाथों से उन्हें स्नान कराते, शरीर को पोंछते अनन्तर वस्त्राभूषण धारण कराते तथापि श्री राय रामानन्द जी का मन निर्विकार रहता ।

स्वहस्ते करान तार अभ्यङ्ग मर्दन ।
स्वहस्ते करान स्नान गात्र-सम्मार्जन ॥
स्वहस्ते परान वस्त्र सर्वाङ्ग मण्डन ।
तभु निर्विकार राय रामनन्देर मन ॥
काष्ठ पाषाण स्पर्शे हय जैछै भाव ।
तरुणी स्पर्शे रामरायेर ऐछे स्वभाव ॥
(चै.च.अन्त्यलीला ५/१५-१९)

उन देव कन्याओं को अपना सेव्य मानकर वह उनकी सेवा किया करते । वे कन्याएं किशोरावस्था युक्त होती थीं । साक्षात् युवती नारी का स्पर्श तो दूर काष्ठ और पाषाण की स्त्री का स्पर्श ही बड़े-बड़े साधन सम्पन्न मुनियों के चित्त में विकारोत्पन्न कर देता है । यह तो केवल श्रीराय रामानन्द जैसे परम भागवत के लिए ही सम्भव था ।

प्रतिदिन राय ऐछे करये साधन ।
कोन जाने छुद्र जीव काहाँ तार मन ॥

यह श्री राय रामानन्द जी का दैनिक क्रम था, विषय विदूषित क्षुद्र जीव भला उनके मन की अवस्था को कैसे जान सकते हैं । स्वयं श्री मन्महाप्रभु जी ने प्रद्युम्न मिश्र को कहा –

मिश्र जी! रायरामानन्द जी की स्थिति व महिमा अनिर्वचनीय है ।

एके देवदासी आर सुन्दरी तरुणी ।
तार सब अंग सेवा करेन आपनी ॥
स्नानादि कराय, पराय वास-विभूषण ।
गुह्य – अंगेर हय ताहा दर्शन – स्पर्शन ॥
तभु निर्विकार रायरामानंदेर मन ॥
नाना भावोद्गार तारे कराय शिक्षण ।
निर्विकार देह – मन काष्ठ पाषाण सम ॥
आश्चर्य तरुणी स्पर्शे निर्विकार मन ॥
(चै.च.अन्त्य ५/३६-३९)

एक तो वे अविवाहित कन्याएं, उस पर वे परम सुन्दरी और फिर युवती जिनकी सर्वांग सेवा राय अपने हाथों से करते हैं, उन्हें स्नान कराते समय, पट भूषण धारण कराते समय उनके मुख-वक्षस्थलादि गुह्य अंगों का दर्शन, स्पर्श भी स्वाभाविक है किन्तु इतने पर भी राय रामानन्द का मन पूर्णतः निर्विकार रहता है और फिर नाना प्रकार के हाव-भावपूर्ण नृत्य की उन्हें शिक्षा देते हैं किन्तु मन इस प्रकार निर्विकार रहता है कि मानो किसी काष्ठ अथवा पाषाण का ही स्पर्श किया हो । युवती के स्पर्श में मन का निर्विकार रहना परमाश्चर्य का विषय है ।

इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्री प्रद्युम्न मिश्र जी को श्री राय रामानन्द जी की महिमा कही । क्या श्री रायरामानन्द जी को महाप्रभु जी ने त्याग दिया?

स्त्री नहीं, संग है नरक का द्वार –

सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥
(भा. ३/३१/३९)

वस्तुतः न स्त्री, न पुरुष, संग (आसक्ति) ही नरक का मार्ग है । पुरुष के लिए स्त्री आसक्ति एवं स्त्री के लिए पुरुष के प्रति की गयी आसक्ति नरक का द्वार है ।

स्त्री को है अधिकार किन्तु स्त्रैण को नहीं –

भागवत माहात्म्य का श्लोक है –

“त्याज्यास्ते यदि पण्डिताः”
(भा.मा.६/२१)

विष पीना अच्छा है किन्तु दुःसंग ऐसा विष है जिसकी गन्ध को सह पाना भी अत्यन्त कठिन है ।

श्रीप्रियादासजी ने मीराजी के प्रकरण में कहा –

गरल पठायौ सो तो सीस लै चढ़ायौ,

संग त्याग विष भारी ताकी झार न सँभारी है ।

ये आलोचक उस विष का पान कराते हैं जिसकी झार (गंध की तीव्रता) समाज को श्रद्धाहीन व नास्तिक बना देती है । अतएव सतीजी ने कहा –

कर्णौ पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशे धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभुश्चेज्जिह्वामसूनपि ततो विसृजेत्स धर्मः ॥
(भा.४/४/१७)

प्राण देना अच्छा है किन्तु ऐसे लोगों के विचार, आलोचना एवं संग उचित नहीं हैं क्योंकि वह अनन्तकाल के लिए जीवन को भक्तिहीन बना देगा । सामान्य विष तो एक ही जन्म समाप्त करेगा किन्तु ऐसे लोगों का संग अनन्त जन्मों का नाश कर देगा ।

“मिलत एक दुख दारुन देहीं”
(रा.च.मा.बाल. ५)

श्रद्धाहीनता, विमुखता एवं नास्तिक्य ही असत्‌ पुरुषों से मिलने वाला दारुण दुःख है । अनन्त जन्म विनाशिनी मृत्यु है ।

स्त्रैण कौन?

स्त्रैण अर्थात् स्त्री लम्पट

किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥
(भा. ११/२६/१२ )

स्त्री के द्वारा जिसका मन चुरा लिया गया है, उसकी सब विद्या व्यर्थ है । तप, त्याग, शास्त्राभ्यास, एकान्तसेवन और मौन से भी उसे कोई लाभ नहीं होगा ।

श्री भगवान् के वचन –

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥
(गी. ४/२३)

आसक्ति त्याग के बाद ही यज्ञादि साधन कल्याण कर सकेंगे ।

स्त्री संग का त्याग आवश्यक है, इसलिए स्वयं भगवान् श्रीराम ने कृपणवत् वन-वनान्तर में विरहलीला की ।

भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तः ।
स्त्रीसङ्‌गिनां गतिमिति प्रथयंश्चचार ॥
(भा. ९/१०/११)

संसार यह समझ ले कि स्त्री आसक्ति का परिणाम यही है, मैं ईश्वर होकर भी रो रहा हूँ ।

जह्याद् यदर्थे स्वप्राणान्हन्याद् वा पितरं गुरुम् ।
तस्यां स्वत्वं स्त्रियां जह्याद् यस्तेन ह्यजितो जितः ॥
(भा. ७/१४/१२)

किन्तु स्त्रैण तो स्वप्राण तक दे देते हैं स्त्री के लिए, यही नहीं अपने माता-पिता और गुरू को भी समाप्त कर देते हैं ।

इससे विपरीत जो स्त्री-जयी है, वह भगवद्-जयी है ।

श्री हनुमान जी के वचन –

मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणं रक्षोवधायैव न केवलं विभोः ।
कुतोऽन्यथा स्याद्रमतः स्व आत्मनः सीताकृतानि व्यसनानीश्वरस्य ॥
(भा. ५/१९/५)

हे भगवन्! यह नरावतार मात्र असुर संहार के लिए नहीं हुआ है, इसका मूल उद्देश्य तो मनुष्यों को शिक्षा देना ही है । अन्यथा आत्माराम ईश्वर को अपनी अभिन्ना शक्ति सीता का इतना विरह हो सकता था भला ।

वक्ता कौन?

श्रीमद्भागवत के अनुसार –

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
द्रष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिःस्पृहः ॥
(भा. माहा. ६/२०)

 

यहाँ स्त्री-पुरुष का कोई आग्रह नहीं है ।

वस्तुतः कथावाचन का अधिकार तो विरक्त को है ।

विरक्त कौन?

जिसका विषयों में राग नहीं, वह विरक्त है ।

ऐसा वैराग्य ठीक नहीं –

बैरागी भूखे फिरैं, रूखे निपट निरास ।
अनुरागै पावैं नहीं, बिनु भयें बिहारीदास ॥
रूठे से रिस में फिरैं, लियैं बैर अरु आग ।
आपुन ही जरि जरि मरैं, बिनु बैराग अभाग ॥
बैरागी बिषई कै जाइ । वह किनि भारि बहिनि की खाइ ।
मूँड़ मुँड़ावै स्वाँग लजावै । अनख बिहारीदास न भावै ॥
(श्रीबिहारिनदेव जी – २७४, २७५, २७६)

जिसका विषयों में राग है, वह विरक्त नहीं स्त्रैण है । वेष से साधु हो अथवा विद्वान्, स्त्रैण को कथा कहने का कोई अधिकार नहीं ।

‘सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम्’
(भा. ११/१२/२)

सत्संग वही है जो समस्त आसक्तियों का नाश कर दे ।

भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः ।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
(भा. ११/२/४२)

जहाँ भक्ति का अभ्युदय हुआ तो भगवदनुभव और संसार से वैराग्य स्वतः हो जाएगा ।

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥
(भा. १/२/७)

वह भक्ति ही परम धर्म है, जिससे वैराग्योत्पन्न हो जायेगा । वैराग्य के बिना भक्ति वन्ध्या है ।

श्री कपिल भगवान् भी कहते हैं –

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्‍ब्रह्मदर्शनम् ॥
(भा. ३/३२/२३)

भगवान् के प्रति हुए भक्तियोग का लक्षण है, उसी क्षण संसार से वैराग्य व ब्रह्मसाक्षात्कार कराने वाले ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी । सांसारिक राग के रहते भगवान् में भक्तियोग कभी नहीं हो सकेगा और राग का उन्मूलन करने वाली कथा कोई विरक्त वक्ता ही कह सकता है, विषयार्थी-अर्थार्थी नहीं ।

न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद् वरीयसीरपि वाचः समासन् ।
स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् ॥
(भा. ५/११/३)

श्री जड़भरत जी के वचन –

न केवल मृत्युलोक के ही प्रत्युत यज्ञादि से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि के सुख जब तक स्वप्नवत् हेय नहीं प्रतीत हो रहे हैं, सुनने वाले (श्रोता) और सुनाने वाले (वक्ता) दोनों ही तत्व ग्रहण नहीं कर सकेंगे ।

श्री प्रह्लादजी के वचन –

मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्‌घ्रिं स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
(भा. ७/५/३०, ३२)

विषयासक्ति के रहते बुद्धि श्रीकृष्ण चरणों में न स्वतः लगेगी, न सत्संग से ही लग सकेगी । निष्किञ्चन अथवा विरक्त महापुरुषों की चरणधूलि में स्नान करने पर जब अनर्थ निवृत्ति होगी, काम रूपी कषाय समाप्त होगा तब ही नैष्ठिकी रति की प्राप्ति होगी ।

श्री सनकादिक के वचन –

रतिर्दुरापा विधुनोति नैष्ठिकी कामं कषायं मलमन्तरात्मनः ॥
(भा. ४/२२/२०)

नैष्ठिकी रति की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, जो काम कषाय अन्तरात्मा के इस मल के रहते सम्भव नहीं है ।

एक विषयार्थी अथवा अर्थार्थी वक्ता विशुद्ध नैष्ठिकी रति की व्याख्या कैसे कर सकता है भला?

यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा

दुरधिगमोऽसतां हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः ।
असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगव-
न्ननपगतान्तकादनधिरूढपदाद्‌ भवतः ॥
(भा. १०/८७/३९)

योगी यति बनकर भी जिनकी कामजटाएं बढ़ी हुयी हैं, वे न मृत्यु जीत सकेंगे, न भगवत्प्राप्ति ही कर सकेंगे । लोक-परलोक दोनों की हानि ही करेंगे क्योंकि इन्द्रियतोषणी कथा से कल्याण सम्भव नहीं है ।

काम अन्तरात्मा का प्रधान दोष है । इसके रहते नैष्ठिकी रति स्वप्न-दर्शनवत्‌ है ।

ता ये पिबन्त्यवितृषो नृप गाढकर्णैस्तान्न स्पृशन्त्यशनतृड्भयशोकमोहाः ॥
(भा. ४/२९/४०)

किन्तु ध्यान रहे धन, विषय-भोगादि की एषणाएं निरन्तर कथा सुनने से ही जाएंगी । जिस कथा को सुनने से एषणाओं की वृद्धि हुई, वह कैसी कथा?

यद्यपि आज अनवरत कथायें हो रही हैं किन्तु आत्यन्तिक क्षेम तो कहीं दिखाई नहीं देता उसका विपरीत फल ही दिखाई पड़ रहा है ।

तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे ।
ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा ॥
(भा. ९/४/७०)

श्री भगवान् ने कहा – दुर्वासा जी! ब्राह्मणों के लिए तप एवं विद्या दोनों कल्याणकारी है किन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्डी और अन्यायी हो जाये तो तप और विद्या का विपरीत फल भी होने लगता है । आज संसार में क्षेम के स्थान पर विपरीत परिणाम ही दिखाई पड़ रहा है । आलोचकों का भक्ति से तो कोई प्रयोजन है नहीं, बस स्त्री-पुरुष लिंग भेद में पड़े हुए हैं अतः श्री मन्महाप्रभु जी ने कहा “जेई कृष्ण तत्त्ववेत्ता सेई गुरु हय” ।

(चैतन्य चरितामृत)

अतः भागवत जी में तो कहा है –

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
द्रष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिःस्पृहः ॥
(भा. माहा. ६/२०)

रसिक जनों ने भी कहा है –

प्रथम सुने भागवत भक्त मुख भगवद्‌ वानी ।

(भगवत रसिक जी की वाणी)

भक्त-मुख से कथा सुनने की आज्ञा है, स्त्रैण-मुख से नहीं । आधुनिक-स्त्रैण (स्त्री-लम्पट) वक्ताओं की स्थिति किसी वधिक को बचाने वाले वकील की भाँति हैं, जो शास्त्रीय-सिद्धान्तों का, महद्‌वाणियों का दुरुपयोग करते हैं । स्वदोष को छिपाने के लिए उदाहरण देते हैं –

“सोई करतूत विभीषण केरी” विभीषण ने भी तो रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी को भोग्या के रूप में स्वीकार किया ।

भगवान् घोर विषयी को भी स्वीकार कर लेते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं कि भगवान् उनके दोषों पर ध्यान नहीं देते किन्तु सुग्रीव और विभीषण जैसी स्थिति भी तो होनी चाहिए ।

सिद्धान्तों को भ्रामक न बनायें!

दस-बीस शिष्य बनाकर स्वयं को महापुरुष समझने वाले ही प्रायः इन सिद्धान्तों की पुष्टि करते हैं कि महापुरुष सर्वसमर्थ हैं । वे उचित-अनुचित सभी कार्य कर सकते हैं । वस्तुतः स्वयं को महापुरुष समझने वाले लोग पाखण्डी, दाम्भिक, अधार्मिक ही हैं ।

श्री नारद जी के वचन –

विधर्मः परधर्मश्च आभास उपमा छलः ।
अधर्मशाखाः पञ्चेमा धर्मज्ञोऽधर्मवत् त्यजेत् ॥
धर्मबाधो विधर्मः स्यात् परधर्मोऽन्यचोदितः ।
उपधर्मस्तु पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छलः ॥
(भा.७/१५/१२, १३)

विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल ये अधर्म की पाँच शाखाएं हैं जो सर्वथा त्याज्य हैं । जिस कार्य को धर्म समझकर किये जाने पर भी स्वधर्म में बाधा हो, वह ‘विधर्म’ है, अन्य धर्म का उपदेश ‘परधर्म’ है, पाखण्डअथवा दम्भ उपमा (उपधर्म) है और शास्त्र-वचनों का मनमाना अर्थ करना छल है । तब स्वयं विचार करें कि शास्त्रीय-सिद्धान्तों का मनमाना अर्थ लेकर अपने रागादि दोषों की पुष्टि करने वाला महापुरुष है अथवा सर्वथा अधर्मी?

श्री भगवान् के ब्रजकुमारिकाओं के प्रति वचन –

न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते ॥
(भा.१०/२२/२६)

हे कुमारिकाओं! जिन्होंने अपने मन व प्राण को मुझे अर्पित कर दिया है, उनमें संसारी कामनाओं का जन्म ही नहीं होगा, ठीक उसी प्रकार जैसे भुने या उबले हुए बीज में अंकुर नहीं उगता है ।

किन्तु इन सिद्धान्तों का उपदेश भगवान् अथवा कोई विरक्त महापुरुष ही कर सकते हैं ।

देहात्मवादी विषय-त्याग की बात नहीं कह सकता है, वह तो स्वयं विषय-सुख को सच्चा सुख समझकर उसमें लिप्त है, जिसका परिणाम है चौरासी लाख योनि भ्रमण ।

देखें – श्रीमद्भगवद्गीता – ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’

समानता सिखाने वाले प्रभु ने विषमता की शिक्षा दी –

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
(गी. ३/३७)

अर्जुन! रजोगुण से समुद्भूत इस महाशन, महापापी काम को अपना परम शत्रु समझकर समाप्त कर दे ।

“प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञान नाशनम्‌”

(गीता ३/४१)

यह काम ज्ञान-विज्ञान का नाशक है ।

सुग्रीव ने कहा –

नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं ।
मुनि मन मोह करइ छन माहीं ॥
(रा.च.मा.किष्कि. २०)

ज्ञान ही नहीं विज्ञान (अनुभवात्मक ज्ञान) की स्थिति पर पहुँच जाने वाले मुनियों का मन भी क्षुब्ध कर देता है ।

श्री कपिल भगवान् के वचन –

सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥
(भा. ३/३१/३९)

अतः मेरी सेवा से जिन्हें आत्मलाभ अर्थात्‌ आत्मतत्त्व का बोध हो गया है, उन्हें विषयों से सर्वथा दूर रहना चाहिए ।

ध्यान रहे, जिस कथा से राग का पोषण होता है, वह कथा नहीं चाटुकारिता है ।

महाराज खटवाङ्ग ने कहा –

ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम् ।
न विन्दन्ति प्रियं शश्वदात्मानं किमुतापरे ॥
अथेशमायारचितेषु सङ्गं गुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।
रूढं प्रकृत्याऽऽत्मनि विश्वकर्तुर्भावेन हित्वा तमहं प्रपद्ये ॥
(भा.९/९/४६, ४७)

मनुष्य ही नहीं सत्त्वगुण प्रधान मन वाले देवता भी बन गये हों तो भी विषयों के प्रति जो राग है, वह छोड़ना होगा । अन्यथा भगवद्‌तत्त्व का ज्ञान कभी नहीं होगा । जब देवों को नहीं होगा तो अन्य विषयी जीवों को क्या होगा? अतः इस माया के खेल में अब मैं रमण नहीं करूँगा । सब त्यागकर सीधे-सीधे श्रीभगवान् की शरण लूँगा ।

श्री कपिल भगवान् के वचन –

यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना ।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः ॥
(भा.३/२७/२७)

माता जी! राग-निवृत्ति में अनेक जन्म लग जाते हैं, तब भी ठीक-ठाक वैराग्य कहाँ हो पाता है?

यह गुन साधन तें नहिं होई ।
तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥
(रा.च.मा.किष्कि. २१)

राग की निवृत्ति भगवत्कृपा से ही सम्भवहै ।

आजकल तो राग-निवृत्ति का मात्र दावा है ।

आज स्त्रैण-वक्ताओं से समाज ही नहीं, सम्पूर्ण राष्ट्र खोखला हो गया ।

श्रीभगवान् के परम प्रिय उद्धवजी के प्रति वचन –

उद्धव! श्री मान बनो, कृपण नहीं ।

कृपण कौन?

‘कृपणो योऽजितेन्द्रियः’
(भा. ११/१९/४४)

जो अजितेन्द्रिय है, वह कृपण है ।

श्री मान कौन?

‘श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्याः’
(भा. ११/१९/४१)

निरपेक्षतादि गुण ही ‘श्री’ हैं, इन गुणों से जो युक्त है वह श्रीमान है ।

“कामत्यागस्तपः स्मृतम्”
(भा.११/१९/३७)

कामनाओं का त्याग ही सच्चा तप है । आज संसार में कौन श्रीमान् है अथवा कौन तपस्वी है? कृपणों की भीड़ है जो कृपणता की ही शिक्षा दे रही है । धन और भोग जुटाने वाले लोग धन व त्याग की शिक्षा कैसे दे सकते हैं?

श्री भगवान् ने कहा –

मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च ।
इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद् व्रतं तपः ॥
(भा. ११/१९/२३)

मेरे लिए धन, भोग और सभी प्रकार का सुख छोड़ दो ।

सावधान!

श्री भगवान् के वचन –

सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ॥
(भा.११/२६/३)

सभी को चाहिए कि वे शिश्नोदरपोषी असत्‌ पुरुषों के संग से सर्वदा दूर रहें अन्यथा उनका अनुगमन करने से वैसी ही दुर्दशा होगी जैसी एक अन्धे की दूसरे अन्धे को पकड़कर चलने पर होती है । क्यों देखा जाता है बड़े-बड़े विद्वानों में लोभ?

रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम् ।
दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते ॥
(भारतीतीर्थ स्वामी कृत- दृग्दृश्यविवेक)

रूप दृश्य है व नेत्र द्रष्टा, नेत्र दृश्य है तो मन द्रष्टा, मन भी दृश्य है तो बुद्धि द्रष्टा और बुद्धि भी दृश्य है तब वृत्ति द्रष्टा है । वृत्ति के अनुसार ही संसार का दर्शन होता है ।

‘वृत्तिसारूप्यमितरत्र’ वृत्ति के सारूप्य से ही हमें संसार का ज्ञान होता है । विषयणी-वृत्ति विषयों में प्रवृत्त करायेगी तब किसी का रूप अच्छा लगेगा तो कभी लड्डू अच्छा लगेगा ।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
(गी. ३/३३)

बड़े-बड़े विद्वानों की भी लोभमयी वृत्ति देखी जाती है क्योंकि उनकी प्रकृति (स्वभाव) लोभमयी है । ऐसी स्थिति में निग्रह क्या करेगा?

प्रकृति अपने अनुसार सब कार्य करा लेगी । प्रकृति तीन प्रकार की है –

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥
(गी. ९/१२)

१-राक्षसी २-आसुरी ३-मोहिनी, इनके रहते बड़े-बड़े वक्ताओं की, ज्ञानियों की स्थिति भी ऊँचाई पर उड़ते हुए बाज की शव पर दृष्टि की भाँति अत्यन्त निम्न है । धर्म को व्यापार बनाकर आज कथाओं के स्थान पर विषपान् कराया जा रहा है । ऐसे लोग निश्चित ही धर्माचार्य न होकर धर्मह्रासाचार्य हैं जिनके द्वारा राष्ट्र ही नहीं समग्र विश्व क्षति को प्राप्त हो रहा है । मोह, धन और भोग से ही उत्पन्न नहीं होता, धर्म से भी मोह उत्पन्न होता है ।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमाव सपत्नमृद्धंराज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥
(गी २/७, ८)

अर्जुन ने कहा – हे प्रभो! मेरा यह मोह धर्मजन्य है और यह सार्वभौम पद तो क्या इन्द्रपद प्राप्त होने पर भी दूर नहीं हो सकता है  । अतःश्रीमद्भगवद्गीता के सारभूत एवं अन्तिम उपदेश के रूप में भगवान् ने कहा –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गी. १८/६६)

सभी धर्मों को त्याग दे अन्यथा ये धर्म भी चक्कर में डाल देंगे ।

वर्तमान युग को धर्म-रक्षार्थ सांस्कृतिक-क्रान्ति की आवश्यकता है । इसके लिए “स्त्री को कथा-कथन का अधिकार नहीं” इस प्रकार के संकीर्ण विचारों को छोड़ना होगा । प्रयास करें कि स्त्रैण-पुरुष कथा न कहें ।

वक्ता ऐसा हो जो अपरिग्रह की परम्परा में पुनः प्राण भरे ।

भूलो मत, यह देश उन त्यागी, अपरिग्रही सन्तों की जन्मभूमि रहा है जिन्हें स्वप्राणों का भी मोह न था किन्तु आज यह जानकर आश्चर्य होगा कि सम्पूर्ण विश्व में जितना धन ८५ लोगों के पास है उसका आधा सम्पूर्ण संसार में है । आज धर्म के द्वारा व्यापार करने वाले लोग भूल गये कि एक प्रचारक स्वामी विवेकानन्द भी थे जो बिना ही द्रव्य के सम्पूर्ण विश्वभर में प्रचार हेतु घूमते रहे ।

हमारा मंतव्य किसी व्यक्ति, समाज, जाति, वर्ग के खण्डन या मण्डन का नहीं अपितु भक्ति के माहात्म्य का प्रतिपादन करना एवं भगवद् गुणों का ओदार्य कथन एवं तत्सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना है । स्त्री, वैश्य, शूद्र अथवा कोई जाति विशेष को महिमा मंडित करना लेखक का लक्ष्य नहीं है । क्योंकि भगवान् स्वयं गो, ब्राह्मण आदि के उपासक हैं लेकिन तुलसीदास जी ने कहा है कि जब तक सद-असद का विवेक हमको नहीं है हम घोर अन्धता को प्राप्त हो सकते हैं –

“ताते मैं गुण दोष बखाने संग्रह त्याग न बिन पहिचाने” ।

राजा प्रताप भानु का चरित्र राम चरित्र के पूर्व में लिखकर तुलसीदास जी ने क्या सन्देश दिया है? यदि विवेक का आश्रय लिया जाता तो प्रतापभानु को रावण नहीं बनना पड़ता, ऐसे ही महारानी कैकेयी मंथरा की कुमन्त्रणा को समझने में विवेकवती होतीं तो सारे साम्राज्य के विनाश का कलंक क्यों झेलती । जीव की ये दुर्दशा है कि वह अपने मनमाने सिद्धान्त को सर्वोपरि मानकर किन्तु, परन्तु, क्यों, कैसे आदि की विषमताओं में विवेक शून्य हो जाता है । हम भगवान् की कृपा का आदर करते हुए, उनके द्वारा प्रदत्त मनुष्य शरीर से केवल उनकी प्राप्ति का ही मार्ग अपनाएँ, इसी दृष्टिकोण से बिना किसी भेदभाव से शास्त्र सम्मत सिद्धान्तों के कथन का ही प्रयास किया गया है । स्त्री, वैश्य, शूद्र को भी परागति की प्राप्ति होने का उल्लेख समस्त सद्-ग्रन्थों अथवा महापुरुषों की वाणियों एवं उनकी क्रियात्मक जीवन शैली तथा उनके अनुभवों से सुस्पष्ट है । यही कारण है आप सबका जीवन भी आत्मकल्याण के जिज्ञासु साधकों के लिए अवलम्ब बनता रहा है । वाल्मीकि जी, रैदास जी, कबीरदास जी, रसखान जी, रहीम जी आदि ने भगवत् प्राप्ति के साथ-साथ भगवद् भक्ति की पतित पावनी रसधारा से समस्त लोक को सिंचित किया है ।

यहीं दूसरा पक्ष यह भी है कि इन सब की आलोचना सर्वत्र दृष्टि गोचर होती है । यथा तुलसीदास जी ने ही कहा है –

ढोल गवांर शुद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी ।

शुकदेव जी महाराज ने भी शुक-रम्भा सम्वाद में स्त्रियों के वीभत्स स्वरूप को बार-बार दिखाया है –

कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।
संसेविता येन सदा मलाढ्या वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
उन्मत्तवेषा मदिरासु मत्ता पापप्रदा लोकविडम्बनीया ।
योगच्छला येन विभाजिता च वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

शुकदेव जी के कथन का आशय केवल स्त्री आलोचना करना नहीं है इन्ही शुकदेव जी ने ब्रजदेवियों की महिमा के सन्दर्भ में कहा है कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं – हे गोपियो! मैं कितने ही जन्म ले लूँ परन्तु तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं हो सकता –

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।
या माभजन्दुर्जरगेहशृङ्खलाः संवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना ॥
(भा.१०/३२/२२)

इस तरह कथनद्वयप्रकारोक्ति में मन्तव्य की अज्ञेता प्राणी को मानसिक अपराध की ओर प्रवाहित कर देती है जगदाराध्य श्रीकृष्ण के गोपियों के साथ रास रस का प्रसंग भक्ति के आचार्य परीक्षित जी तक को शंका में डाल देता है –

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।
प्रतीपमाचरद्ब्रह्मन्परदाराभिमर्शनम् ॥
आप्तकामो यदुपतिः कृतवान्वै जुगुप्सितम् ।
किमभिप्राय एतन्नः शंशयं छिन्धि सुव्रत ॥
(भा.१०/३३/२८, २९)

शंका हुई तो उसकी क्षति उठानी पड़ी रास-रस का प्रवाह जो अनन्त मंगल का हेतु था बाधित हुआ ।

एक वेश्या जो निंदनीय कर्म के द्वारा घृणाकी दृष्टि से देखी जाती है उसमें भी यदि वह रजो धर्म से प्रभावित हो तो चाण्डालिनी के रूप में मानी जाती है । उसके चरित्र को भी नाभा जी ने बड़ी श्रद्धा के साथ गाया है यही नहीं उसकी उस दूषित अवस्था में स्वयं भगवान् ने उसके हाथों से स्वर्ण हार पहनने के लिए मूर्ति रूप से अपना सिर झुका दिया था । भगवान् जिसको अपनाते हैं उसकी आलोचना फिर चाहे सारा जगत करे, वहाँ फिर किसी की आलोचना का महत्व क्या?

यद्यपि श्री प्रह्लाद जी ने उपरोक्त का समाधान श्री मद्भागवत जी में पूर्व में ही स्पष्ट कर दिया है । कहते हैं कि बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण स्वयं अपने आपको भी पवित्र नहीं कर सकता यदि वह अहंता आदि गुणों से युक्त है । वहीं एक शूद्र या चाण्डाल स्वयं का ही नहीं अपितु अपने समस्त वंश को पावन बना देता है, यदि उसका समर्पण सच्चा है । समर्पण की सच्चाई मन, वाणी और सभी कर्मो के द्वारा होनी चाहिए । स्त्री, पुत्र, धन, वैभव, प्राण आदि सब कुछ समर्पित हो वही वास्तव में समर्पण है भक्तिहीन ब्रह्मा जी भी प्रशंसनीय नहीं हैं फिर साधारण आदमी की तो बात ही क्या ।

भगति हीन बिरंचि किन होई । सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी । मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥
(रा.उ.का.८६)

पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥
(रा.उ.का.८७क)

बात समर्पण भाव की है, भक्ति की है । यदि भक्ति और भाव है तो उस प्राणी का सर्वत्र अधिकार है । आज घर-घर में कथावाचक तैयार हो रहे हैं जिसमें स्त्रियाँ भी बड़ी संख्या में अग्रसर हो रही हैं । सभी जाति वर्ग के लोग भागवत व्यास बनने को आतुर हैं और लोगों का मार्ग दर्शन भी कर ही रहे हैं परन्तु क्या वास्तव में मार्ग दर्शन हो रहा है? भागवत वक्ता कैसा होना चाहिए यह शुकदेव जी के व्यासत्व से स्वतः सिद्ध हो गया है कि शुकदेव जी जैसे नग्न व रिक्त हस्त आये थे कथा के बाद वैसे ही चले गए । क्या उस तरह की योग्यता हम में दिखाई देती है । नहीं तो …. आत्मचिंतन करके देख लें ।

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥
(भा.१/२/८, ९, १०)

चिन्तनोपरान्त हम यही पायेंगे कि हमारा वह जीवन पूर्णतया खोखला ही है । जरा सी दक्षिणा कम मिलती है तो हमारा मुख मलिन हो जाता है । कई बार तो मंच पर ही भेंट का वाद विवाद लोगों में परिहास का कारण भी बन जाता है । इस तरह के कथाकार बनकर क्या हम कृष्णाराधक बन पायेंगे? भक्ति की कसोटी पर खरा उतरने वाला प्राणी चाहे वह कोई भी है वह जगत पूज्य है ।