श्री रमेश बाबा जी महाराज ने भक्त त्रिलोचन जी की कथा ०९ दिसम्बर २००८ एकादशी को श्री मान मंदिर में अध्ययन रत छात्र एवं छात्राओं को सुनायी थी । यह कथा जन लाभ के लिये यहाँ पुनः उद्दरित है –

 

 

देखो, भगवान् की सेवा साक्षात् कहाँ मिलती है? जब भगवान् मिलें तो उनकी सेवा मिले लेकिन अगर उनके भक्तों की सेवा मिल जाए तो वो भगवान् की सेवा से बड़ी होती है । इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है –

अन्तर्यामी गर्भगत साधु सुन्दरी माँहि ।
तुलसी पोषे एक के दोनों पोषे जाँहि ॥

किसी स्त्री के गर्भ में कोई बच्चा है, उसकी तुम सेवा नहीं कर सकते हो क्योंकि वह पेट के भीतर गर्भ में है लेकिन अगर उसकी माँ को तुम खिलाओ पिलाओ तो पेट में जो बच्चा है वो अपने आप ठीक मोटा (पुष्ट) हो जाएगा । ऐसे ही भक्त जो है वो गर्भिणी स्त्री है, उसके भीतर अन्तर्यामी पेट में भगवान् रहते हैं । भक्तों की सेवा अगर कोई कर ले तो भगवान् की सेवा हो गयी और भगवान् की सेवा से बड़ी हो गयी ।

भगवान् तो दिखाई नहीं पड़ता है, चिन्मय शरीर की भावना से सेवा हो जाती है । भगवान् की सेवा करने वाले तो बहुत हैं, भक्तों की सेवा करना कठिन है क्योंकि भक्त भी मनुष्य होता है, मनुष्य शरीर में श्रद्धा रखना कठिन है । जैसे – साधु-संत हैं ये खाते हैं तो शौच भी जाते हैं । बीमार भी पड़ते हैं भक्त लोग, खाँसी है, जुखाम है, बुखार है, प्राकृतिक शरीर की कमजोरियाँ दिखाई पड़ती हैं, फिर भी उनकी सेवा करना ये बड़ी बात है । भगवान् भक्तों की सेवा से बहुत ज्यादा प्रसन्न होते हैं । देवगुरु वृहस्पति जी ने देवराज इन्द्र से कहा है –

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा ।
रामहि सेवकु परम पिआरा ॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई ।
सेवक बैर बैरु अधिकाई॥

“मद्भक्तपूजाभ्यधिका” (भा. ११/१९/२१) इसीलिये जो चतुर लोग होते हैं वो भगवान् को छोड़कर के भक्तों की सेवा करते हैं; चाहे वो कैसा भी भक्त है ‘छोटा इत्यादि’ ।

तुलसी जाके बदन ते धोखेहु निकसत राम ।
वाके पग की पगतरी मेंरे तन को चाम ॥

धोखे से भी भगवन्नाम निकल जाए, उसको भी भक्त मान लो और अपने शरीर का चमड़ा काट के उसके पाँवों की जूती बना लो । ये एक बहुत बड़ी बात है, हमने देखा है जो लोग भक्तों की सेवा करते हैं, उनके यहाँ सुख-सम्पत्ति की कमी कभी नहीं होती है और वो सदा फलते-फूलते, भगवान् की कृपा प्राप्त करके भवसागर तर जाते हैं । इसी बात को दिखाने के लिए भगवान् स्वयं आते हैं, भक्तों की सेवा करते हैं, करके दिखाते हैं कि देखो, मैं भी भगवान् होकर भक्तों की सेवा करता हूँ, तुम भी सब करो ।

एक कथा है भक्तमाल में त्रिलोचन भक्त की, बड़े भारी भक्त थे और उनके यहाँ भक्त लोग आया करते थे, सदा भीड़ लगी रहती थी । ५०-५०, १००-१०० भक्त कीर्तन करते हुए आ रहे हैं, भोजन कर रहे हैं, ऐसी जगह भगवान् जरूर आते हैं और सेवा करने आते हैं, खाली ये ही नहीं कि भण्डारा पा के चले गये । त्रिलोचन जी के यहाँ भगवान् गये एक मजदूर का रूप बनाकर के नौकरी ढूँढ़ने कि हमको कोई नौकर रख ले । त्रिलोचन जी को जरूरत भी थी, क्योंकि १००-१००, ५०-५० के टोल आ जाएँ भक्त लोग और उनको भोजन बनाना, खिलाना तो वो बैठे थे वहाँ और भगवान् एक मजदूर का रूप (फटी-सी एक फितूरी है, पाँव में जूता नहीं है, बहुत गरीब रूप) बनाकर गये । त्रिलोचन जी के यहाँ हर समय कीर्तन होता था, भगवान् के सच्चे भक्त थे । उनके यहाँ सैकड़ों भक्त प्रसाद पा रहे हैं, आ रहे हैं – जा रहे हैं; तो भगवान् गोपाल जी स्वयं पहुँचे एक मजदूर का रूप बनाकर के और जाकर के बोले –

कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
मैं तो दास पुराना दासों का, मैं तो दास पुराना दासों का ॥

मजदूर रूप ठाकुर जी ने आवाज लगाई – “हमें कोई नौकर बना के रख ले, हम नौकरी माँगने आये हैं ।”

त्रिलोचन जी भीतर से दौड़े, अरे ! हमारे यहाँ तो बहुत भीड़ रहती है, कोई आ गया, चलो बात करते हैं ।

त्रिलोचन जी मजदूर रूप ठाकुर जी के पास गये और बोले – “अरे भैया ! तुम कौन हो, कहाँ से आये हो?”

ठाकुरजी हँस गये, समझ गए कि अब हमारा भक्त आ गया, बोले – “भाई ! देखो, मैं नौकरी ढूँढ़ने आया हूँ और नौकरी चाहिए ।”

त्रिलोचन जी बोले – “अच्छा, भाई ! तुम नौकरी चाहते हो, तुम्हारा कोई पता-ठिकाना?”

मजदूर रूप ठाकुर जी बोले – “मेरे कोई माँ नहीं, मेरे कोई बाप नहीं ।”

अब ठाकुर जी कह तो रहे हैं सच लेकिन त्रिलोचन भक्त समझ रहे हैं कि कहीं ऐसे अनाथ होयगो, काऊ ने पालन-पोषण कियो होयगो ।

त्रिलोचन – “तो भाई ! तेरी तनखाय क्या है? क्या लेगा तू?”

मजदूर रूप में श्रीठाकुर जी – “देखो जी, एक भी पैसा नहीं लूँगो ।”

त्रिलोचन – “तो नौकरी काय बात की?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “मैं खाऊँ ज्यादा, या मारे मोय कोई नौकर नहीं रखे ।”

त्रिलोचन जी – “भैया ! कितनो खावै?”

मजदूर रूप ठाकुर जी –“पाँच किलो ।”

त्रिलोचन जी – “अच्छा, भैया ! खायवै की कमी तो है नहीं ।”

(वहाँ सैकड़ों भक्त भोजन करते हैं ।)

जो सेवा करता है, वहाँ घाटा नहीं रहता; चाहे कैसी भी सेवा हो ।

त्रिलोचन जी – “भाई ! पाँच किलो हम रोज खवायेंगे तोय । और कोई तेरी ठहर, कोई शर्त?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “हमारी कोई निन्दा न करे तब हम नौकरी करते हैं । जा दिन कोई निन्दा करेगो, हम छोड़ के चले जायेंगे ।”

त्रिलोचन जी – “अच्छा, भाई  ! हम निन्दा क्यों करेंगे, हमारे यहाँ तो निन्दा को काम ही नहीं है, दिन-रात कीर्तन करैं और हमारे यहाँ जितने आवैं (कोई नातेदार, रिश्तेदार ‘सांसारिक सम्बन्धी’ नहीं आवैं), भगवान् के भक्त आवैं, उनकी सेवा कर लैगो?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “अरे, वही सेवा तो मैं जानूँ, भक्तन की सेवा मैं करूँ, याही मारे मैं तेरे दरवाजे आयो हूँ ।”

(त्रिलोचन जी ने मन में सोचा – अरे, ये तो कोई भगत मालूम पड़े ।)

त्रिलोचन – “भाई ! भक्त बड़े-बड़े आवैं, टेढ़े-मेढ़े आवैं, रिसेले-गुस्सेले आवैं ।”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “मैं सब झेल लूँगो ।”

त्रिलोचन जी – “अच्छा ! तो भाई, ये कपड़ा पहन ले । फटे-फटे तेरे कपड़ा हैं ।”

त्रिलोचन जी ने मजदूर रूप ठाकुर जी की फटी सी फितूरी उतरवाय करके नए वस्त्र धारण कराये ।

त्रिलोचन जी –“तेरो नाम का है? ”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “मेरो नाम है – अन्तर्यामी ।”

त्रिलोचन जी – “अन्तर्यामी नाम तो बड़े जोर को रखो, कौन ने रखो भाई?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “पतौ नहीं साहब, मैंने पहले कह्यो – मेरी मैया-बाप नहीं ।”

सब सच कह रहे हैं कि हम अन्तर्यामी भगवान् हैं लेकिन उनको पहिचान कौन सकै? मुश्किल तो ये है । फटे-फटे कपड़े में आये हैं, कोई पनहैया नहीं, जूती नहीं ।

त्रिलोचन जी – “अच्छा भाई, अन्तर्यामी ! तू एक बात बताय कि सेवा कैसी कर सकैगो?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “सुनो –”

सेवा करने में मैं हूँ बड़ा चातुर सेवक मैं पुराना ।
सेवा ही की मैंने अब तक, सेवा धर्म ही जाना ॥
कोई एक बार अजमा ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले ॥
मैं तो दास पुराना दासों का ।

त्रिलोचन जी – “भाई ! तू कैसी-कैसी सेवा कर सकै, ये भी बता दे?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – सुनो, भाई !

कोई पग चप्पी करवा ले, चाहे सिर को मलवा ले ।
कोई सेना नाई की सी मालिस भी करवाय ले ॥
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
चाहे जूती गठवाय ले, अच्छी गाठूँ रविदास से ।
चाहे कपड़ा सिलवाय ले, सिलूँ अच्छी परमेष्ठी से ॥
कोई मुझसे कुछ करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले ॥
मैं तो दास पुराना दासों का ।

त्रिलोचन – “अरे भाई ! तू इतने काम जाने और तऊ तेरे ऊपर फटी सी फितूरी ।”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “साहब ! हमने तो बता दियौ, हम सब काम जानैं लेकिन खावैं ज्यादा सो कोई नौकर नहीं रखे और रखउ ले तो बुराई करै, तो मैं भाग जाऊँ वहाँ ते ।”

त्रिलोचन जी – “और क्या जाने? ”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “सुनो, भाई !”

चाहे चरखा चलवाय ले, अच्छी कातूँ मैं कबिरा से ।
चाहे कपड़ा रँगवा ले, अच्छी रँग दूँ मैं नामा से ॥
कोई सेवा कैसी भी करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा कर ले ॥
मैं तो दास पुरानों दासों का ।

त्रिलोचन जी – “अरे भाई ! तेरे में तो बड़े गुण हैं और कहा जानै?”

मजदूर रूप ठाकुर जी – “और सुनो, साहब !”

चाहे चक्की पिसवाये ले, पीसा जनाबाई संग मैंने ।
चाहे नाच नचा ले मुझसे, नाचा मीरा संग मैंने ॥
मनचाही से कुछ करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले ॥
मैं तो दास पुराना दासों का ।
कैसे भी गहना गढ़वाय ले, अच्छा गढ़ूँ त्रिलोकी भक्त से ।
खेत जुताय ले कुम्भन जैसा, खेत कटाय ले धन्ना जैसा ॥
कोई टहल सभी करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले ।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले ॥
मैं तो दास पुराना दासों का ।

त्रिलोचन जी – “बस-बस, भैया ! तू तो बड़े काम को आदमी है और हमने तोय रख लियो ।”

अब (ठाकुर जी) अन्तर्यामी सेवा करने लग गये और कोई जान नहीं पायो ।

१०० साधु आ जायें, प्रसाद पायके जब सोवें तो उतने ही रूप धर लें और सबन्ह के जाय के पाँव दाबें, हर साधु सोचे हमारे ही पास है अन्तर्यामी ।
काऊ ने सोचो प्यास लगी है तो पहले पहुँच जायें लौटा लेकर के ।

प्यासा साधु – “अरे भाई ! अन्तर्यामी, तेरो नाम सच में अन्तर्यामी है, मोय प्यास लग रही और तू पहले से लौटा लेके आय गयो ।”

अन्तर्यामी – “हाँ जी, मोय सेवा को अभ्यास है ।”

यानि बड़ी सेवा करी और १३ महीने तक सेवा करते रहे ।

एक दिन त्रिलोचन भक्त की स्त्री गयीं पानी भरवे कुआ पै, तो वहाँ और गाँव की पनिहारी मिलीं (परस्पर में बातें करने लगीं) –

पनिहारिन – “अरे वीर ! तेरे यहाँ तो बड़ो अच्छो सेवक आ गयो है अन्तर्यामी, सब काम कर दे ।”

त्रिलोचन की स्त्री – “हाँ, सब काम कर दे, ढेर के ढेर बर्तन माँज दे, लकड़ी फाड़ दे, पानी भर दे, जहाँ जाय कोई काम बाकी नहीं रहे । काम करने की कहो और काम पूरो तैयार ।

लेकिन एक बात है – खावै बहुत, ५ किलो भोजन पूरो खाय जाय ।”

उधर बुराई करी और इधर अन्तर्यामी गायब । उनकी ठहर थी कि हम से सेवा तुम जन्म भर करवा लो, लेकिन निन्दा करने पर चला जाऊँगा ।

भगवान् शिक्षा दे रहे हैं कि हम लोगों को निन्दा नहीं करनी चाहिए (यह एक अक्षम्य पाप है) ।

महात्माओं ने लिखा है –

संसार में सबसे बड़ी मैया मानी गयी, क्योंकि अपने हाथों से मल आदि धोवे बच्चा के, मैया पाप को नहीं धुल सकती है और जो दुष्ट लोग होते हैं वो जीभ से हम सबके पाप को निन्दा कर-करके अपनी जीभ से चाट-चाट के सब पाप को खा जाएँ । जो काम मैया नहीं कर सकती है वो काम निन्दक लोग (हम जैसे लोग) किया करते हैं, पाप तुमने किया निन्दा कर करके तुम्हारा सारा पाप खा लिया हमने जीभ से ।

इसीलिये शास्त्र में कहा गया है –

पराई निन्दा के समान पाप कुछ नहीं है ।

तो जैसे ही अन्तर्यामी के बारे में त्रिलोचन जी की स्त्री ने पनहारिन से कहा कि अरी ! खावै बहुत, वैसे ही अन्तर्यामी गायब हो गये ।

अब गायब हो गये तो वहाँ सब काम फैल रहा है ।

त्रिलोचन जी बोले – “अरे अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ! ओ रे अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ! ”
और दिना तो बुलाने की जरूरत नहीं थी, पहले ही हाजिर हो जाते थे । आज चिल्ला रहे हैं – अन्तर्यामी ! अन्तर्यामी ! ! अरे अन्तर्यामी ! ! !

कोई नहीं आ रहा है, त्रिलोचन जी समझ गये कि कोई न कोई किसी ने बुराई किया है, उसकी ठहर थी कि जिस दिन तुम बुराई करोगे हम यहाँ से चले जायेंगे ।
भगवान् कभी नहीं चाहते हैं कि हमारा भक्त किसी की बुराई करे, निन्दा करे या पाप खावै । ये जीभ भगवान् के नाम के लिए है, भगवान् शिक्षा देते हैं कि तुम क्यों बुराई करते हो?

तो अब त्रिलोचन जी समझ गये, उतने में उनकी स्त्री आयी पानी भर के और उससे पूछा कि तेने क्या बुराई करी थी अन्तर्यामी की? पहले कुछ नहीं बोली चुप रही, बाद में कहा कि हाँ, अन्तर्यामी की निन्दा की थी पनिहारियों से कि ‘खावै बहुत’ ।

त्रिलोचन जी ने अपनी स्त्री से कहा – “अरे, तेने अन्तर्यामी को गायब करा दियौ ।”

त्रिलोचन जी अन्तर्यामी के वियोग में पागल होकर के चारों ओर घूमने लग गये और पुकारने लगे –

अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ! अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ऽ !! कहाँ गया अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ! ! !
मेरो प्राण अन्तर्यामी ! मेरो देह अन्तर्यामी !! ……………………………
मेरी मैया अन्तर्यामी ! मेरो बाबा अन्तर्यामी !! …………………………….
मेरो भैया अन्तर्यामी ! मेरो बन्धु अन्तर्यामी !! अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ! ………..

सारा दिन बीत गया पागल की तरह, रात बीत गयी, अन्तर्यामी ! अन्तर्यामी ! ! चिल्लाते चिल्लाते । न खाना खा रहे हैं, न पानी पी रहे हैं । स्त्री भी चुप, क्या करे? पति पागल हो गया । दूसरा दिन बीत गया, दूसरी रात बीत गयी, अन्तर्यामी ! …. कहाँ? अन्तर्यामी! ! …..कहाँ?

चिल्लाते हुए तीन दिन-तीन रात बीत गयीं बिना खाये-पिये;

तब आकाशवाणी हुई (बड़ी मीठी वाणी आकाश से आयी) –“अरे त्रिलोचन जी !”

त्रिलोचन जी की ऊपर दृष्टि गयी, है तो कोई नहीं लेकिन आवाज आ रही है, बोले – “कौन है भैया !”

आकाशवाणी – “मैं हूँ तुम्हारा इष्ट, मैं ही तुम्हारे घर में सेवा करने के लिए आया था । देखो, हमारी-तुम्हारी ठहर थी कि जब निन्दा होगी तब हम वहाँ से चले जायेंगे । अब तुम भोजन करो, हमारी आज्ञा मानकर के । तुम कहो तो फिर से तुम्हारी सेवा कर सकता हूँ, बोलो क्या चाहते हो?”

अब त्रिलोचन जी चुप । भगवान् से कैसे कहें कि आप फिर से आओ, जूठे बर्तन माँजना, हमारी जूती को गाँठ देना, हमारे कपड़ों को धो देना, हमारी लंगोटी धो देना, कैसे कह सकता है भगवान् का भक्त ।

त्रिलोचन जी बोले – “प्रभु ! आपने हमको ठग लिया, आप भगवान् होकर के और हमारे घर में आपने ऐसी नीच सेवायें किया, मोरी साफ करते थे – मल-मूत्र तक, जूठे बर्तन माँजते थे आप, जूती गाँठते थे, आपने क्या नहीं किया । मैं तो पापी हूँ, नीच हूँ, मुझको तो डूब कर मर जाना चाहिए, आपसे मैंने सेवा लिया । मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप सेवा करने के लिए आओ ।”

भगवान् बोले – “तो तुम भोजन करो और तुम्हारी सेवा जो भक्तों की सेवा है, हम उससे प्रसन्न हैं, हम ये बताने के लिए तुम्हारे घर नौकरी करने आये थे ।”
देखो – जो व्यक्ति भक्तों की सेवा करता है, भगवान् उसके घर जरूर आते हैं, इससे शिक्षा मिलती है ।